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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५६ ) मुर्णता ॥ ४ ॥ क्षेत्री लघु अंगुलतणो, भाग असंखित देखे || तेहमा पुगल खंध जे, तेहने जाणे पेखे || ५ || लोक प्रमाणे अ araair, खंड असंख्य उhिa || भाग असंख्य आवलितणो, " श्रद्धा घुप दिव || ६ || उत्सर्पिणी अवसर्पिणी ए. अतीत अनागत अद्धा || अतिशय संख्या तिगपणे, सांभलो भाव प्रबंधा ॥७॥ एक एक द्रव्यमां चार भाव, जघन्यथी ते निरखे || असंख्याता द्रव्य दीठ, पर्यव गुरुथी परखे || ८ | चार भेद संक्षेपथी ए, नंदीसूत्र प्रकाशे | विजयलक्ष्मी सूरि ते लहे, ज्ञान भक्ति सुविलासे || ९ || इति चैत्यवंदनं समाप्तं ॥ ॥ अथ चतुर्थ मनःपर्यव ज्ञान चैत्यवंदन ॥ ॥ श्री मनःपर्यव ज्ञान छे; गुणप्रत्ययी ए जाणो ॥ अप्रमादि रुद्धिवंतने, होय संयम गुणठाणो || १ || कोइक चारित्रवंतने, चढते शुभ परिणामे || मनना भाव जाणे सही, सागारि उपयोग टा || २ || चितविता मनोद्रव्यना ए, जाणे खंध अनंता || आकाशे मनोवर्गणा, रह्या ते नवि गुणंसा || ३ || संज्ञी पंचेंद्रिय प्राणीये, तनु येोगे करी ग्रहीया || मन ये । गे करी मनपणे, परिणमे ते द्रव्य मुणीया || ४ || तिहुँ माणसक्षेत्रमां, अढी द्वोप विछोके ॥ तिर्छालेोकना मध्यथी, सहस जोयण अधोछेाके ॥ ४ ॥ ऊरध जाणे ज्योतिषी लगे ए, पलियनो भाग असंख्य | कालथी भाव थया यशे, अतीत अनागत संख्य ॥ ६ ॥ भावथी चितिव द्रव्यना, For Private And Personal Use Only
SR No.020138
Book TitleChaityavandan Stuti Stavanadi Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivnath Lumbaji
PublisherPorwal and Company
Publication Year1925
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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