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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२७४) अराधवा । नाखे त्रिजगजाण ॥ विधिसेति तपकीजिये । पामे उत्तम नाण ॥५॥ ॥ ढाल १ ली शंभव जिनवर वीनती ॥ एदेशी॥ आठम तप आराधिये । अष्टमी गति दातारो रे ॥ प्रवचनमाता आउने । पालो निसदिन सारो रे ॥ श्राम ॥१॥ अष्टसिद्धि कारक सदा । श्रामि तप उजमंता रे ॥ सामायक पोसह करि । पर्वतिथी सेवंता रे ॥ श्रा० ॥२॥ पर्वतिथीमां बंधाय । प्रायें परजव आयु रे ॥ तिण कारण तिथी तप करो । आगम मांहि गवायु रे ॥ श्रा० ॥ ३ ॥ बृहदावश्यकवृत्तिमा । हरिनसूरि बोले रे ॥ तिमचूर्णिलघुवृत्तिमां। योगशास्त्रमा खोले रे ॥ ॥४॥ नवपदप्रकरणवृत्तिमां। दिनकृत्य देवेंजसूरि रे॥विधिप्रपा पंचाशक वलि । इम अधिकार ने नूरिरे ॥ श्रा० ॥ ५ सामायक पहिला कह्यो । पाउल इरियानो पाठ रे ॥ जाणे पण माने नहिं । एह कर्मनो गठ रे ॥ ॥६॥ विधिथी सामायक करो । जिम पामो नव पारो रे ॥ अविधि श्री किरिया करि । नवि बूटे नवनो लारो रे ॥ ० ॥७॥ ॥ ढाल २ जी ॥ यतनी ॥ __परवतिथीये पोषध करिये । शुछ आगमने अनुसरिये । वली श्राप कर्मने हरिये । सलूणा नाव नले आराधो । एतो आराधि सिवसुख साधो । सलूणा श्राम तिथी आराधो ॥१॥आठम दोय चनदस कहिये । अमावस पूनिम लहिये। एह उतिथी चारित्र वहिये ॥ स ॥ ना० ॥॥ वली For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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