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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२३५) ॥ अथ नवम साधुखरूप वर्णन सज्झाय लिख्यते॥ रसीयानी देशी ॥ धर्म धुरंधर मुनिवर सुलही । नाण चरण संपन्न ॥ सुगुणनर ॥ इंजिय लोग तजी निज सुख नजी। जवचारक उदविन्न ॥ सु॥१॥ व्य नाव साची सरधा धरी परिहरी शंकादि दोष ॥ सु० ॥ कारण कारज साधन श्रादरी । धरी ध्यान संतोष ॥ सु० ॥ध० ॥२॥ गुण पर्यायें वस्तु परिखतां । शीख उलय नंमार ॥ सु० ॥ परिणति शक्ति स्वरूपमें परिणमी। करता तसु व्यवहार ॥ सु० ॥ध० ॥३॥ लोक सन्न वितिगिना वारता । करता संयम वृद्धि ॥ सु०॥ मूल उत्तर गुण सर्व संजारता । धरता आतमशुहि ॥ सु० ॥ ध० ॥४॥ श्रुतधारी श्रुतधर निश्रारसी । वश कस्खा त्रिक जोग ॥ सु० ॥ श्रन्यासी अनिनव श्रुत सारना। अविनाशी उपयोग ॥ सु० ध० ॥ ५॥ अव्य नाव आश्रव मल टालता। पालता संयम सार ॥ सु० ॥ साची जैन क्रिया संजालता। गाखता कर्म विकार ॥ सु॥ध० ॥६॥ सामायिक आदिक गुण श्रेणिमें । रमता चढते रे नाव ॥ सु० ॥ तीन लोकश्री जिन्न त्रिलोकमें । पूजनीय जसु पाव ॥ सु० ॥ध ॥ ७ ॥ अधिकगुणी निज तुल्य गुणी थकी । मलता ते मुनिराज ॥ सु० ॥ परम समाधि निधि नव जलधिना । तारण तरण जहाज ॥ सु० ॥ध ॥ ॥ समकितवंत संयम गुण ईहता । ते धरवा समरथ ॥ संवेग पदी जावें शोनता । कहेता साचो रे अर्थ ॥ सु० ॥ध ॥ ए ॥ आप प्रशंसायें नवि माचता। राचता मुनि गुण रंग ॥ सु० ॥ अप्रमत्त मुनि श्रुत तत्त्व For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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