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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५) जिन रतन चिंतामणि तणी परि प्रघल वंचित पूरए । प्रहसमे त्रिकरण सुख प्रणमें सदा जिनचंदसूरए ॥ २३ ॥ इति श्री चिन्न लगवानका स्तवनं संपूर्णम् ॥ ॥ अथ श्री उपधान तप वृद्ध स्तवनं लिख्यते ॥ ॥ श्री महाबीर धरम परकासे । वेठी परषद बारजी। अमृतवचन सुणी अति मीग । पामें दरष अपार जी॥१॥ सुणो सुणो रे श्रावक उपधान बह्यां विन । किमसूके नवकार जी। उत्तराध्ययन बहुश्रुत अध्ययने । एह लण्यो अधिकार जी ॥॥ सुणो० ॥ महानिशीथ सिद्धांत मांहे पिण । उपधांन तप विस्तार जी। अनुक्रम सुझ परंपर दीसे । सुविहित गब आचार जी ॥ सुणो ॥३॥ तप जपधान वह्यां विन किरिया। तुल अलप फल जाण जी । जे जपधान वह्या नर नारी । तेह नो जनम प्रमाण जी ॥४॥ सणो० ॥ तप उपधान कह्यो सिद्धांते । जो नविमाने जेह जी । अरिहंत देवनी आण विराधे जमस्ये नव नव तेह जी ॥ ५ ॥ सुणो० ॥ अघड्या घाट समां नर नरी । विण उपधाने होय जी। किरिया करतां आदेश निरदेश । काम सरे नहीं कोई जी ॥६॥ सुणो० ॥ इक घेवरने खांझे नरियो । अति घणो मीगे श्राय जी । एक श्रावक उपधानवहेतो धन धन ते कहवाय जी ॥७॥ सुणो॥ ॥ ढाल २॥ नवकार तणो तप पहिलो वीसम जाण । इरियावही नो तपबीजो वीसम आण। इण बिहुँ उपधाने निश्चे नांण मंमाण । बारे उपवासे गुरु मुख बेबे वांणि ॥ ॥ त्रीसम त्रीजो णमो त्थुणं उपधांन । त्रिण वायण उगणीस तप उपवास प्रधान । For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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