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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ७२] सबगच्छवाले बहुतसाधुओं को आहार, पानी, तथा संयम उपकरणोंसे निर्वाह होता है। ऐसे महान् शासन प्रभावक परम उपकारी महाराजाने पूर्वाचार्योंकी प्रवृत्ति मुजब तथा आगमादि प्राचीन शास्त्रानुसारही सत्य प्ररूपणाकरीहै, मगर शास्त्रविरुद्ध होकर नवीन प्ररूपणानहींकरी. जिसपरभी कितनेक पक्षपातीजन उपकारी महाराजोके उपकारोंको छुपादेते हैं, और छठे कल्याणक प्रकटकरनेकी तथा स्त्रीपूजा निषेध करनेकी नवीनप्ररूपणाकरने का झूठा दोषलगाकर अनेक तरह से निंदा करते हुए आक्षेप करते हैं । उन्होको परभवमे जीभ मिलना मुश्किल है यहबात तपगच्छवालेही गुणानुरागी मभ्यस्थ भावसे लिखते हैं । अर्थात् ऐसे उपकारोंको भूलकर झूठा दोष लगाकर निंदा करनेवाले एकेन्द्रिय होवेंगें, फिर उन्होकों जैनधर्म प्राप्त होना बहुत मुश्किल होवेगा, संसारमे बहुत काल परिभ्रमण करेंगे. इसलिये भवभिरु आत्मार्थी भव्य जीवोंको संसार परिभ्रमण के हेतुभूत उपकारी पुरुषोंकी झूठी निंदा करके भोले जीवोंकों मियत्वमें गेरनेरूप अनर्थ करना सर्वथा अनुचित है । और ऊपरके लेख से श्रीरत्नविजयजीके लेखमुजब तपगच्छके तथा खरतरगच्छके आपस में विशेषरूपसे संप की वृद्धि होना चाहि य और कुसंपके कारण भूत पर्युषणामै खंडनमंडनके विवाद वाले विषयोंकों सर्वथा त्याग करके संपसे शासन उन्नतिके कार्यों में कटि बद्ध होना, यही अपने और दूसरे भव्यजीवों केभी आत्म कल्याणका हेतु है । ऐसी ही श्रद्धा तथा प्ररूपणा और प्रवृत्तिका शुद्ध हृदयसे व्यवहार करके उपकारी पुरुषोंकी झूठीनिंदा छोडकर, प्राचीन पूर्वाचायकी परंपरामुजब शास्त्रानुसार आषाढ चौमालीले ५० दिने दूसरे श्रावण में या प्रथम भाद्रपद में पर्युषण पर्वका अराधन करके तथा श्री महावीर स्वामिके च्यवनादि छ कल्याणकोंको आगमानुसार भावपूर्वक मान्य करके भगवान्की आज्ञानुसार धर्मकायसे निज और परका कल्याणकरो, संसार परिभ्रमण के दुःख से छुटो, और अक्षय सुख प्राप्त करो. यही आत्मिक हृदयकी विशुद्ध प्रेम भावसे आत्महितैषी पाठक गण भव्य जीवोंके प्रति प्रार्थना है. इति 'शुभम् . विक्रम संवत् १९७७, प्रथम श्रावण शुदी १३ बुधवार. हस्ताक्षर - श्रीमान् उपाध्यायजी श्रीसुमतिसागरजी महाराजके लघु शिष्य - मुनि - माणिसागर. जैन धर्मशाल, धुलिया - खानदेश. For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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