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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - [ ४ ] इसलिये भवभयको गुरु गच्छ व लोक समुदायादिकका पक्षरखनेके बदले जमालिके शिष्योंकी तरह जिनाशाका पक्ष रखनाही योग्य है, अर्थात् - जैसे अपने गुरु जमालिके उत्सूत्रप्ररूपणा के पक्षकोछोडकर बहुत भव्यजीव भगवान्की आज्ञामुजब मानने लगेथे, तैसेही - अभी भी आत्मार्थियों को करना योग्य है. यही सम्यक्त्वका मुख्य लक्षण है. Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६- मैरे बनाये इस एक ग्रंथके सामने अनेक ग्रंथ लिखे जाने की मैरेको कोई परवाह नहीं है, देखो-जैसे एकवीतराग सर्वज्ञभगवान् के परोपकारी जैन आगमोंके विरुद्ध हजारों मतवादी अनेक तरहसे अ पना २ कथन करते हैं. मगर तत्त्व दृष्टिसे आत्महितकारी सत्य बात क्या है, यही देखा जाता है. तैसेही- मेरे बनाये इस ग्रंथपरभी १-२ नहीं; परंतु १०-२० लेखकभी अपना २ विचार सुखसे लिखे. मगर जिनाशानुसार सत्य बात क्या है. यही देखना है. झूठे मतवादियों का यही स्वभाव है, कि - हजारों सत्य बातें छोड देते हैं, और अतिशयोक्ति या क्रोध में आकर क्लेश बढानेलगजाते हैं, मगर अपनी बात को छोडते नहीं. वैसे इस ग्रंथपर न होना चाहिये यही प्रार्थना है. ७- इस ग्रंथ में पर्युषणा संबंधी अधिक महीने के ३० दिनोंकी गिनती सहित आषाढ चौमास से ५० वें दिन दूसरे श्रावण में या प्रथम भाद्रपद मे पर्युषण पर्व का आराधन करनेका तथा श्रावण भाद्रपद आ सोज अधिक महीनें होंवे तव पर्युषणा के पीछे कार्तिकतक १०० दिन ठहरनेका खरतर गच्छ, तपगच्छ, अंचलगच्छ, पाय चंद्गच्छादि सर्व गच्छके पूर्वाचार्यों के वचनानुसार और निशीथचूर्णि, बृहत्कल्पचूर्णि, पर्युषण कल्पचूर्णि स्थानांग सूत्रवृत्ति वगैरह अनेक शास्त्रपाठानुसार अच्छी तरह से साबित करके बतलाया है। जैसे अधिक महोना होवे तोभी ५० दिने पर्युषणापर्व करने की सर्व शास्त्रोंकी आशा है, वैसेही- अधिकमदीना होवे तोभी पीछे हमेश ७० दिन रहने की आ शा किसीभी शास्त्रमें नहीं है, समवायांगसूत्रका पाठ तो सामान्य रीति से अधिक महीना न होवे तब ४ महीनोंके वर्षाकाल संबंधी है, उसका भावार्थ समझे बिना अधिकमहीना होवे तब अभी पांच म हीनों के वर्षाकालमें भी उसी सामान्य पाठको आगे करना और १०० दिन पीछे रहनेसंबंधी अनेक शास्त्रोंके विशेष पाठोंकी बातको छोड देना यह सर्वथा अनुचित है । ८- लौकिक टिप्पणा दो श्रावणादिमहीने होवे, तब पांच महीनोंका वर्षाकाल मान्य करना यह बात अनुभवसिद्ध प्रत्यक्ष प्रमाणानुसार For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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