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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४५२ ] उत्यापन करके उत्त भाषणों से कुयुक्तियों के संग्रह पूर्वक अधिकमासको कालचूला वगैरहके बहानेसे निषेधकरने संबं. धी-कल्पकिरणापली तथा मुखबोधिका कृत्तिवगैरहके लेखों को हरवर्षे श्रीपर्युषणापबं के दिनों में बांचते हैं जिसको गच्छकदा ग्रही पक्षपाती अज्ञजीव श्रद्धापूर्वक सत्यमानते हैं ऐसे उपदेशक तथा श्रोता श्रोजिनाज्ञाके आराधक पंचांगीको श्रद्धावाले सम्यक्त्वी आत्मार्थी हैं ऐसा कोहभी विवेकीतत्वज्ञ तो नही कहसकेगे। क्योंकि श्रीअनंत तीर्थंकर गणधरादि महःराजेका प्रमाण कियाहुवा कालचलाकी श्रेष्ट ओपमा वाला अधिकमासको निषेधकरने वालों में प्रत्यक्षपने श्रीजिनज्ञा का विराधकपना होनेसे मिथ्यात्वसिद्ध होताहै सो तत्वज्ञ स्वयं विचार सकते हैं । इसलिये मिथ्यात्वसे संसार में परिभ्रमण करनेका भय करने वाले तथा श्रीजिनाज्ञामुजब वर्तने की इच्छा करने वाले विवेकियोंको तो श्रीजिनशा विरुद्ध उपरोक्त कार्य करना तथा उसी मुजब श्रद्धा रखना उचित नही है किंतु श्रीजिनाज्ञामुजब पर्युषणाके ब्याख्यान सुनने वाले भव्यजीवोंके आगे अधिक मासकी गिनती करनेका शास्त्र प्रमाणपूर्वक सिद्धकरके दूसरे प्रावणमैं वा प्रथम भाद्रपद में श्रीपर्यषा पर्वका आराधन करना तथा दूसरों से करना सोही आत्महितकारीहै सो तत्वदृष्टि से विचारना चाहियेःइति अधिक मासके निषेधक उत्सत्र भाषी कुयुक्तियों करनेवाले सातवें महाशयजी वगैरहे।के पर्युषणा सम्बन्धि अज्ञ जीवों को मिथ्यात्वमें गेरने के लेखांकी संक्षिप्त समीक्षा समाप्तः ॥ HALA For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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