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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३४ ] और धर्मसागर जी वगैरह जो जो लेख लिख गये हैं और वर्त्तमान में 'शास्त्र विशारद जैनाचार्य्य' की उपाधिधारक सातवें महाशयजी श्रीधर्म विजयजी जैसे प्रसिद्ध विद्वान् कहलाते भी उसी अन्धपरम्परासे मिथ्यात्व के कदाग्रहको पकड़कर अज्ञ जीवोंको उसीमें फसानेके लिये उसीको विशेष पुष्ट करनेका उद्यम करते हैं परन्तु श्रोजिनेश्वर भगवानको आज्ञाका उत्थापन करके प्रत्यक्ष पञ्चाङ्गी प्रमाण विरुद्ध प्ररूपणा करते हुए अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से सज्जन पुरुषोंके आगे हास्य काहेतु करनेका कारण करते भी कुछ लज्जा नहीं पाते हैं सो तो इस कलियुगमें पाखण्ड पूजा नामक अच्छेरेका प्रभावही मालूम पड़ता है । इसलिये श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी पुरुषको ऐसे उत्सूत्र भाषकों की कुयुक्तियों के भ्रममें न पड़ना चाहिये और निष्पक्षपातने इस ग्रन्थको आदिने अन्त तक बांचकर असत्यको छोड़के सत्यको ग्रहण भी करना चाहिये परन्तु गच्छके आग्रह से उत्सूत्र भाषणको बातोंको पकड़कर उसी में नहीं रहना चाहिये । और भी श्रीधर्मसागरजीकी तथा श्रीविनयविजयजीकी धर्मधुताई का नमूना पाठक वर्गको दिखाहूं, कि देखो श्रीविनयविजयजीने श्रीलोकप्रकाश नामा ग्रन्थ बनाया है सो प्रसिद्ध है उसीमें अधिक मासको गिनती प्रमाण करी है अर्थात् समयादि सुक्षमकालसे आवलिका मुहूर्तादिककी व्याख्या करके ३० मुहूर्तीका एक अहोरात्रि रुप दिवस, सो १५ दिवसांसे एकपक्ष, दो पक्षोंसे एकमास बारह मासोंसे चन्दसंवत्सर और अधिक मास होने से तेरह नासोका अभिवर्द्धित संवत्सर इन पांचों संवत्सरों से For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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