SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 533
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४०९ ] व्यभिचारिणी स्त्री और बेश्या कहने लगी कि, यह तो नपुंसक है इसलिये हमारे पास नहीं आता है। ___अब पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि-जैसे उस व्यभिचारिणी स्त्रीका और वेश्याका मन्तव्य लस शेठसे परिपूर्ण न हुवा तब उसी को नपुंसक कहके उसीकी मिन्दा करी परन्तु जो विवेकबुद्धि वाले न्यायवान् धर्मी मनुष्य होयेंगे से तो उस शेठको नपुंसक म कहते हुवे उत्तमपुरुष ही कहेंगे, तैसेही सातवें महाशयजी भी अधिक मासको गिनतीमें लेनेका निषेध करने के लिये उत्सूत्र भाषणरूप अनेक कुथुक्तियोंका संग्रह करते भी अपना मन्तव्यको सिद्ध नहीं कर सके तब नपुंसक कहके अधिक मासकी निन्दा करी और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उम्मङ्घन होनेसे संसार वृद्धिका भय न किया परन्तु जो विवेक बुद्धि वाले न्यायवान् धर्मी मनुष्य होवेंगे सो तो अधिक मासको नपुंसक म कहते हुवे श्रीतीर्थङ्कर मणधरादि महाराजांकी आज्ञानुसार विशेष उत्तमही कहेंगे सो तत्त्वज्ञ पाठक वर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ;--- और अधिक मासको नपंसक कहके धर्म कार्योंमें निषेध करने के लिये चौथे महाशयजीने भी उत्सूत्र भाषण रूप कुयुक्तियों के संग्रहवाला लेख लिखके बाल जीवोंको मिथ्यात्त्व में गेरनेका कारण किया था जिसकी भी समीक्षा इसीही ग्रन्थके पृष्ट २००से २०४ तक अच्छी तरहसे खुलासा पूर्वक छप गई है सो पढ़नेसे विशेष निःसन्देह हो जावेगा; और जैसे धर्मी पुरुषोंको पर स्त्री देखने में अधेिकी तरह होना चाहिये परन्तु देव गुरु के दर्शन करने में तो For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy