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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९ ] महाशयजी इतने विद्वान् कहलाते हैं तथापि श्रीजैन शास्त्रों के तात्पर्य समझे बिना अपने कदाग्रहके कल्पित पक्षको स्था. पन करनेके लिये वृथाही क्यों उत्सूत्र भाषण करके अपनी अज्ञता प्रगट करी है क्योंकि लौकिक ज्योतिषके गणित मुजब वर्तमानिक पञ्चाङ्ग में तिथियांकी हानी और वृद्धि होनेका अनुक्रमे नियम है और अधिकमासकी तो मर्वथा करके वृद्धि ही होनेका नियम है परन्तु तिथिकी हानी होनेसे १४ दिन का पक्षकी तरह, मासकी हानी होकर १९ मासका वर्ष कदापि नहीं होता है इसलिये तिथिकी हानी अथवा वद्धि होवे तो भी दुनियाके व्यवहारमें १५ दिनका पक्ष कहा जाता है जिससे क्षामणे भी १५ दिनके करने में आते हैं और मासकी तो हानी न होते, सर्वथा वृद्धिही होती है इसलिये दुनियाके व्यवहारमें भी तेरह मासका वर्ष कहा जाता है परन्तु मासवृद्धि होते भी बारह मासका वर्ष कोई भी बुद्धिमान विवेकी पुरुष नहीं कहते हैं जिससे मातद्धि होनेसे क्षामणे भी १३ मासकेही करने में आते हैं, परन्तु मासवृद्धि होते भी बारह मासके क्षामणे करनेका कोई भी बुद्धिवाले विवेकी पुरुष नहीं मान्य कर सकते हैं। इसलिये तिथियांकी हानि वृद्धि होनेका नियम होनेसें और मासकेसदा वृद्धि होनेका नियम होनेसे दोनका एक सदृश व्यवहार होने का सातवें महाशयजी ठहराते हैं सो कदापि नहीं हो सकता है। और निश्चय व्यवहारादि नय करके श्रीजिन प्रवचन चलता है इसलिये लौकिक पञ्चाङ्ग में १६ दिनका अथवा १४ दिनका पक्ष होते भी व्यवहार नयकी अपेक्षासें १५ दिन के क्षामणे करने में आते हैं परन्तु निश्चय नघकी अपेक्षा से तो For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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