SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 474
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४२ ] देखिये सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीने शास्त्र. विशारदकी पदवीको अङ्गीकार करी है तथापि पर्युषणा विचारके लेखको आदिमेंही श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यको समझे बिना निर्मूलता समूलताका विचार छोड़ने सम्बन्धी और अपनी२ परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकार्य कहने सम्बन्धी दो उत्सूत्रभाषण प्रथमही बालजीवोंको मिथ्यात्वमें फंसानेवाले लिख दिये और पूर्वापरका कुछ भी विचार विवेक बुद्धिसें हृदयमें नही किया इसलिये शास्त्रविशारद पदवीको भी लजाया-यह भी एक अलौकिक आश्चर्यकारक विद्वत्ताका नमूना है, खैर-अब पर्युषणा विचारके आगेका लेखकी समीक्षा करके पाठक वर्गको दिखाता हूं पर्युषणा विचारका प्रथम पृष्ठके मध्यमें लिखा है कि(पक्षपाती जन परस्पर निन्दादि अकृत्योंमें प्रवर्तमाम होकर सत्यधर्मको अवहेलना करते हैं ) इस लेखपर भी मेरेको इतनाही कहना है कि सातवें महाशयजीने अपने कृत्य मुजब तथा अपने अन्तरगुण युक्त ही ऊपरका लेख में सत्यही दर्शाया है क्योंकि खास आपही अपने पक्षकी कल्पित बातोंको स्थापन करने के लिये श्रीजिनाज्ञा मुजब सत्यबातोंको निषेध करके सत्यवातोंकी तथा सत्यबातोंको मानने वालोंकी निन्दा करते हुवे कुयुक्तियोंसे बालजीवों को मिथ्यात्वके भ्रममें गैरनेके लियेही पर्युषणा विचारके लेखमें उत्सूत्र भाषणोंका संग्रह करके अविसंवादी श्रीजैनशासनमें विसंवादका झगड़ा बढ़ानेसें श्रीजैनशासनरूपी सत्यधर्मकी अवहेलना करने में कुछ कम नही किया है सो For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy