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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१८ ] थी इसलिये श्रीपूर्वधरादि महाराजोंके बनाये श्रीआवश्यक. चूर्णि वगैरह पञ्चाङ्गीके शास्त्रोंके पाठोंपर उन्हेंोंको संशयरूपी मिथ्यात्वका भ्रम रहा अथवा अपनी विद्वत्ताके अभिमानसे संसार वृद्धिका भय नही करते अभिनिवेशिकमिथ्यात्वके अधिकारी बनके ऊपरोक्त शास्त्रोंके पाठोंके तात्पर्य्यको जानते हुवे भी प्रमाण नही करे और भोले जीवोंको भी पञ्चाङ्गीके ऊपरोक्तादि शास्त्रोंके पाठोंकी शुद्ध श्रद्धा रहित बनानेके लिये 'जैनसिद्धान्त समाचारी' नामक पुस्तकमें पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों के विरुद्धार्थने अन्य अन्य विषयोंके अधिकारवाले अधूरे अधूरे पाठ लिसके उसीका भी उलटा तात्पर्य बालजीवोंको दिखा करके (उत्सूत्र भाषणरूप अनेक जगह लिखके) अपनी समुदायबालोंको तथा अपने गच्छवालोंको संशयरूपी मिथ्यात्वके भ्रममें गेरे हैं और श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाका आराधनरूपी मोतसाधनका रस्ताकी सत्यबातोंका निषेध करके संसार यद्धिके कारणरूप मिथ्यात्वको फैलानेवाली अपनी मतिकल्पनाकी भिध्या बातोंको स्थापन करी है जिसका विस्तारसे शास्त्रार्थ पूर्वक इस जगह निर्णय करनेसे बड़ाही विस्तार होजावे तचापि न्यायाम्भोनिधिजी का ( अपनी समुदायवालों पर तथा अपने गच्छवालों पर ) गेरा हुवा मिथ्यात्वका अमको अवश्यही दूर करके मोक्षाभिलाषी सत्यग्राही भव्यजीवोंकी शुद्ध श्रद्धारूपी सम्यकत्व रत्नकी प्राप्तिके उपगारके लिये सत्य बातोंका दर्शाव भी जरूरही होना चाहिये इसलिये जैनसिद्धान्त समाधारी नामक पुस्तकके उत्तररूपने 'आत्मभ्रमोच्छेदनभानुः' नामा ग्रन्थ छपना भी सरू होगया है उसीमें न्यायाम्भोनिधि For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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