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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २७६ ] जानकर छोड़ दिया और शास्त्रानुसार सत्य बातोंको ग्रहण करनेकी इच्छासे श्रीवल्लभविजयजीके पास जैन दीक्षा लेने को आये तब श्रीवल्लभविजयजीनें तथा उन्हें के दृष्टिरागी श्रावकोंने विचार किया कि - घासीराम और जुगलरामने ढूंढक मतके साधु भेषमें अनुचित कार्य्यो ( असूची की क्रियायों) से अपने शरीरको अपवित्र किया है इसलिये इन दोनका शरीर प्रथम पवित्र कराके पीछे दीक्षा देनी चाहिये ऐसा विचार करके दोनु को पवित्र करनेके लिये जैन तीर्थों में न भेजते हुए अन्य मतियोंके मिथ्यात्वी तीर्थ में काशी गङ्गाजी भेजकर के पवित्र कराये ( इसका विशेष आगे लिखने में आवेंगा ) इसलिये भी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो । इत्यादि अनेक बातों में छठे महाशयजी आप लोगही ढूंढियांका सरणा लेकर उन्होंकाही अनुकरण करते हो, तथापि आपने श्रीबुद्धिसागरजीको ढूंढियांका सरण लेनेका लिखा है सो प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि श्रीबुद्धिसागरजीनें ढूंढियांका सरणा लेनेका कोई भी कार्य्यं नही करा है इतने पर भी आपके दिल में यह होगा कि श्रीबुद्धिसागर - जीनें ढूंढियाकी मारफत पत्र हमको पहुंचाया इसलिये ढूंढियांका सरणा लेनेका हमने लिखा है तो भी महाशयजी यह आपका लिखना सर्वथा अनुचित है क्योंकि दुनियामें यह तो प्रसिद्ध व्यवहार है कि --- कोई गांग में किसी आदमीको एक पत्र भेजा जिसका जबाब नहीं आया तो थोड़े दिनोंके बाद दूसरा भी पत्र भेजने में आता है, दूसरे पत्रका भी जवाब नहीं आनेसें तीसरी For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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