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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २०७ । लेना, देना, स्त्रियोंकों गर्भका होना और वृद्धि पामना, जन्मना, मरणा, और संसारिक व्यवहारमें व्यापारादि कृत्य करना, दुनीयामें रोगी, तथा निरोगी होना, और दान पुण्यादि भी करना, इत्यादि पाप और पुण्यके कार्य करना ही नही होता होगा तब तो मनुष्यादिकोंकों अधिक मास अङ्गीकार नही करनेका ठहराना न्यायाम्भोनिधिजीका बन सके परन्तु जो ऊपरके कहे, पाप, पुण्यके, कार्य्य दुनियाके लोग अधिक मासमें करते है इस लिये न्यायाम्भोनिधिजी का उपरका लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या होनेसे पक्षपाती हठयाहीके सिवाय आत्मार्थी बुद्धिजन कोई भी पुरुष मान्य नही कर सकते है इसको विशेष पाठकवर्ग विचारलेना ; और आगे फिर भी न्यायाम्भोनिधिजीने श्रीआवश्यक नियुक्तिकी गाथा लिखी है सो भी नियुक्तिकार श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुखामिजीके विरुद्धार्थमें उत्सूत्रभाषणरूप और इस गाथाका सम्बन्ध तथा तात्पर्य समके बिना भोले जीवोंकों संशयमें गेरे हैं इसका विशेष विस्तार सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नाम की समीक्षामें अच्छी तरहसे किया जावेगा सो पढ़के सर्वनिर्णय करलेना-और फिर भी न्यायाम्भोनिधिजीने श्रीआवश्यक नियुक्तिकी गाथाका भावार्थ लिखा है कि ( हे अंब अधिक मासमें कणियरको प्रफुल्लित देखके तेरेको फूलना उचित नहीं है क्योंकि यह जाति बिनाके आडम्बर दिखाते हैं ) इस लेखसे अधिक मासमें कणियरको फूलना ठहराते अंबको नही फूलना ठहराकर कणियरको तुच्छ जातिकी और अंबको उत्तम जातिका ठहराते हैं सोभी इन्होंकी समझमें फेर है क्योंकि For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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