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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०५ ] प्राप्ति होनेसे सिद्धान्त विरुद्ध होगा, फिर तो ऐसा हुवा कि एक अङ्गको आच्छादन किया और दूसरा अङ्ग खुल्ला होगया तात्पर्य्य कि तुमने आज्ञाभङ्ग न हुवे इस वास्ते यह पक्ष अङ्गीकार किया तोभी आज्ञाभङ्गरूप दूषण तो आपके शिर परही रहा-पूर्वपक्ष-इस दूषणरूप यन्त्रमें तो आपको भी यन्त्रित होना पड़ेगा-उत्तर-हे समीक्षक यह आज्ञाभङ्गरूप दूषणका लेश भी हमको न समझना क्योंकि हम अधिक मासको कालचूला मानते हैं-] अब उपरके लेखकी समीक्षा करते है कि हे सत्यग्राही सज्जन पुरुषों उपरके लेखमें न्यायाम्भोनिधिजीने अपनी चतुराई प्रगट कारक और प्रत्यक्षउत्सूत्र भाषणरूप भोले जीवोंको श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध रस्ता दिखानेके लिये अनुचित क्यों लिखा है क्योंकि प्रथमतो पूर्वपक्षमें ही [आप तो मुखसे ही बाता बनाइ जाते हो ] यह अक्षर लिखे है इससे मालुम होता है कि पहिले जो जो लेख न्यायांभोनिधिजीने लिखा है सो सो शास्त्रोंके प्रमाण बिना अपनी कल्पनासें लिखा है इसलिये न्यायांभोनिधिजीके जैसी दिलमें थी वैसीही पूर्वपक्षके अक्षरों में लिख दिखाई है सो, हास्यके हेतुरूप है सो तो बुद्धिजन विद्वान् पुरुष समझ सक्त है और इसके उत्तरका लेखमें भी सूत्रकार महाराजके अभिप्राय को जानेबिना उलटा विरुद्धार्थ में तीनों महाशयोंकी तरह चौथे न्यायाम्भोनिधिजीनें भी कर दिया क्योंकि श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठ मासवृद्धिके अभावका है। और पर्युषणा के पीछाड़ी १०० दिन होनेसें कोई भी दूषण नही है याने मास वृद्धि होनेसें पर्युषणाके For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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