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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३२ } पुमाए पज्जोसवेंति एसउस्सग्गो सेसकाल पज्जीसविताणं अववाउत्ति, श्रीनिशीथ चूर्णि दशमोद्ददेशक वचनादाषाढ पूर्ति मायामेव लोचादि कृत्यविशिष्टा पर्युषणा कर्त्तव्या स्यात् इत्यलं प्रसंगेन उपरोक्तपाठ जैसा मैंने देखा बैसा ही यहाँ छपा दिया है और जैसे श्री विनयविजयजी ने उपरोक्त पाठ लिखा हैं वैसा ही अभिप्रायः का श्रीधर्मसागरजीने श्रीकल्यूकिरणाबली वृत्तिमें और श्रीजय विजयजी ने श्रीकल्पदीपिका वृत्ति में अपनी अपनी विद्वत्ताको चातुराई से अनेक तरहके उटपटांग, पूर्वापर विरोधी विसंवादी और उत्सूत्र भाषण रूप शास्त्र कारोंके विरुद्धार्थ में अपनी मनकल्पना से लिखके गदाग्रही दृष्टि रागी श्रावकों के दिलमें जिनाज्ञा विरुद्धमिध्यात्वका भ्रनगेरा हैं । जिसका सबपाठ यहाँ लिखने से ग्रन्थ बढ़जावे, और वा वकवर्गको विस्तार के कारण से विशेष लगे इसे नही लिखा और तीनों महाशयों का अभिप्राय उपरके पाठ मुजब ही खास एक समान है, इसलिये तीनों महाशयोंके पाठको न लिखते एकही श्री सुखबोधिका वृत्तिका पाठ उपर में लिखा है उसीकी समीक्षा करता हु सो तीनों महाशयोंके अभिप्रायका लेखकी समझ लेना- -अब समीक्षासुनो तीनों महाशय अधिकमासकी गिनती निषेध करके फिर उसीकों ही पुष्टी करने के लिये प्रश्नोत्तर रूपमें लिखते है कि-अधिकमासको गिनती में नही करते होतो ( किं का केनः भक्षित; - इत्यादि) क्या अधिकमासको काकने भक्षण कर लिया किं वा तिस अधिक मासमें पाप नही लगता हैं और उस अधिकमास में क्षुधा भी नही लगती है --- For Private And Personal -
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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