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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८० । देते हैं, मरीचिवत, मरीचि एक दुर्भाषित वचनसे दुःखरूप समुद्रको प्राप्ता हुआ; एक कोटा कोटी सागर प्रमाण संसार में भ्रमण करता हुआ जो उत्सूत्र आचरण करे सो जीव चीकणे कर्मका बन्ध करते हैं। संसारकी वृद्धि और माया मृषा करते हैं तथा जो जीव उन्मार्गका उपदेश करें, और सन्मार्गका नाश करे सो गूढ़ हृदयवाला कपटी होवे, धूर्ताचारी होवे शल्य संयुक्त होवे सो जीव तिर्यंच गतिका आयुबन्ध करता है। उन्मार्गका उपदेश देनेसें भगवन्तके कथन करे चारित्रका नाश करता है, ऐसे सम्यग् दर्शनसें भ्रष्टकों देखना भी योग्य नही है, इत्यादि आगम वचन सुनके भी ख अपने आग्रहरूप ग्रहकरी ग्रस्त चित्तवाला जो उत्सूत्र कहता है क्योंकि जिसका उरला परला कांठा नही है ऐसे संसार समुद्र में महादुःख अंगीकार करने में। प्रश्न-क्या शास्त्रको जानके भी कोई अन्यथा प्ररूपणा करता है। उत्तर--करता है सोई दिखाते हैं देखने में आते हैंदुषमकालमें वक्रजड़ बहुत साहसिक जीव भवरूप भयानक संसार पिशाचसे न डरने वाले निजमतिकल्पित कुयुक्तियों करके विधिमार्गकों निषेध करने में प्रवर्तते है कितनीक क्रियांकों जे आगममें नही कथन करी है तिनको करते हैं और जे आगमने निषेध नही करी है चिरंतन जनोंने आचरण करी है तिनको अविधि कह करके निषेध करते हैं और कहते हैं—यह क्रियाओ धर्मीजनोंकों करने योग्य नही है। उपरमें श्री आत्मारामजीके लेखमें जो पूर्वाचाय्याने आवरीत ( प्रमाण ) करी हुई बातको निषेध करनेवालाकों For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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