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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५० ] इसिपभाराणाम इति एतमभिहाणं तस्स साथ सबह सिद्धि विनाणाउ उवरि वारसैहि जोयणेहिं भवति तेण सा उठुलोए भवति । गता खेत्तचूला । इयाणि काल भावचूलाउ दोविएग गाहाए भमति । अहिमास उउकाले।गाहा । बारसमास वरिसाल अहिउमासो अहिमासउ अहिवढिय वरिसे भवति सोय अधिकत्वात् कालचूला भवति तु सदीर्थप्प दरिसणेण केवलं अधिको कालो कालचूला भवति अंतो विवढ्ढमाणो कालो कालचूलाए भवति एवं जहाउसप्पिणीए अंते अंति दूस समाए सा उस्सप्पिणीए अंते कालस्सचला भवति। कालचला गता । इयाणिं भावचला । भवणं भावः पर्याय इत्यर्थः॥ तस्स चूला भावचूला सोय दुविहा आगमउय णो आगमउय आगमउजाणए उवउत्तेण णो आगमउय इमाचेव तुसहो । खउवतम भावविसैसेण दद्वन्धो इमाइति । पकप्प झयण चला एग सद्दोवधारणे चूलेगठिता चूलात्तिवा विभूसणंति वा सीहरंति वा एते एगठी॥ चलेति दारंगयं ॥ इति श्रीनिशीथसूत्रके पहिले उद्देशे की चर्णिके पृष्ठ २२ तक ___और भी १४४४ ग्रन्थकार सुप्रसिद्ध महान् विद्वान् श्री. हरिभद्रसूरिजी कृत श्रीदशवैकालिकसूत्रके प्रथम चलिकाकी वहत वृत्तिका पाठ सुनिये श्रीदशवैकालिकमूलसूत्र, अव चरि, भाषार्थ,दीपिका और वहत्वृत्ति सहित मुम्बईसे छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके पृष्ठ ६४० और ६४१का चला विषयका नीचे मुजब पाठ जानो-यथा___ अधुनौघतचड़े आरभ्यते अनयोश्वायमभिसम्बन्धः । इहा नन्तराध्ययने भिक्षुगुणयुक्त एव भिक्षुरुक्तः सचैवं भूतोऽपि कदाचित् कर्मपरतन्त्रत्वात् कर्मणश्च बलवत्त्वात्सीदेदत For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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