SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९४] लिये इरियावही करनेका बतलायाहै,उसका आशय समझे बिनाही अपने गच्छके पूर्वज आचार्य महाराजकोभी विसंवादरूप मिथ्यात्वका दोष लगानेका भय नहीं करते हुए सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करते हैं, सो भी बडी भूल करते हैं. ... १९ - औरभी देखो धर्मरत्नप्रकरण वृत्तिमें "इरियं सु पडिकतो कड समइयं" इरियावही पूर्वक स्वाध्याय करें; एसा पाठ है,उसमें समइय' शब्दकीजगह 'सामाइय' शब्द बनाकर दो मात्राज्यादे अधिक पाठमें प्रक्षेपन करके स्वाध्यायकी जगह सामायिकका अर्थ बदलातेहैं सो यहभी सर्वथा शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणारूप बडीभूल है. २०-श्रीधर्मघोषसूरिजीने 'संघाचारभाष्यवृत्ति में चैत्यवंदन संबं धी दशत्रिकके अधिकारमें सातवी त्रिको तीनवार भूमिप्रमार्जन क. रके इरियावहीपूर्वक-चैत्यवंदन करनेका बतलाया है, उसकेभी प्रवापरका संबंध छोडकर उसपाठका भावार्थ समझे बिना उसपाठसे भी सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरते हैं, और इन महाराजकेही गुरु महाराज श्रीदेवेंद्रसूरिजीने प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही लिखा है, उस बातके विरुद्ध प्ररूपणाकरनेवाले ब. नाते हैं, सो भी बड़ी भूल है. २१-वंदीत्तासूत्रकीटीकाके पाठसेभीसामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरातेहैं,सोभी सर्वथाअनुचितहै,क्योंकि देखो-वंदीत्तासूत्रकी प्राचीन चूर्णि और श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति वगैरह अनेकप्राचीन शास्त्रोंमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करने का खुलासा लिखा है और खास वंदीत्तासूत्रकी टीकामेभी नवमा सामायिक व्रतकी विधिसंबंधी आवश्यकचूर्णि,पंचाशकचूर्णि,योग शास्त्रवृत्ति वगैरह अनेक शास्त्रानुसार सामायिककरनेकी विधि लिखाहै उन्ही सर्व शास्त्रोंमें भी प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही लिखाहै, इसलिये प्राचीन चूर्णि आदिअनेक शास्त्रों के विरुद्ध होकर पूर्वापर विसंवादीरूप वि विरोधी कथन - एकही विषयमें ; एकही ग्रंथमें ; कभी नहीं होसकताहै, जिसपरभी एकही विषयमें, एकही प्रथम विसंवादी क. थन माननेवाले या कहनेवाले शास्त्रविरुद्ध श्रद्धा रखनेवाले सर्वथा अशानी समझने चाहिये. २२- पंचाशकसूत्रकी चूर्णिके पाठसेभी नवमें सामायिक व्रतमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका स्थापन करते हैं,सो भी सर्वथा अनुचित है,क्योंकि इन्हीं चूर्णिमें नवमें सामायिकवत संबंधी प्रथम For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy