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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८७ ] टाल दिया. अब वोही किताब छपवाना चाहते हैं, उस किताब में सामायिक कल्याणक - पर्युषणा - अभयदेवसूरिजी तिथि वगैरह बातौसं. बंधी शास्त्रानुसार सत्य २ बातोंको झूठी ठहरानेके लिये शास्त्रकार महाराजों के अभिप्राय विरुद्ध होकर अधूरे २ पाठ लिखकर उन पाठोंके अपनी कल्पना मुजब जान बुझकर खोटे खोटे अर्थ करके कुयुक्तियाँसे उत्सूत्र प्ररूपणारूप और प्रत्यक्ष मिथ्या बहुतजगह लि खाहै, उसका थोडासा नमूना पाठकगणको यहांपर बतलाते हैं, जिसमें प्रथम सामायिक संबंधी लिखते हैं: १ - श्रावक के सामायिक करनेकी विधि संबंधी सर्व शास्त्रोंमें पहिले करेमिभतेका उच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावही करनेका लिखा है, देखो - श्रीजिनदासगणिमहत्तराचार्यजी कृत आवश्यक सूत्रकी चूर्णिमं १, श्रीहरिभद्रसूरिजीकृत वृहद्वत्ति में २, तिलकाचार्यजी कृत लघुवृत्ति ३ देवगुप्तसूरिजी कृत नर्वपदप्रकरण वृत्ति में ४, लक्ष्मीतिलकसूरिजी कृत श्रावकधर्म प्रकरण वृत्ति में ५, श्री नवांगीवृतिकार अभयदेवसूरिजी कृत पंचाशक सूत्रकी वृत्तिर्मे६, विजयसिंहाचार्यजीकृत वंदीतासूत्र की चूर्णिमें ७, हेमचंद्राचार्यजी कृत योगशास्त्र वृत्तिमें, ८, तपगच्छीय देवेंद्रसूरिजी कृत श्राद्धदिनकृत्य सूत्रकीवृत्तिमे ९, कुलमंडनसूरिजी कृत विचारामृत संग्रह में १०, मानविजयजी कृत धर्मसंग्रह वृत्ति में ११, इत्यादि अनेक शास्त्रों में खास तपगच्छादि सर्व गच्छोंके पूर्वाचार्यांने प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछे से इरियावही करनेका बतलाया है. २ - श्रीमान् देवेंद्रसूरिजी कृत श्राद्धदिनकृत्य सूत्रवृत्तिका पा ठ यहां पर बतलाताहू. सो देखिये :-- " श्रावकेण गृहे सामायिकं कृतं, ततोऽसौ साधुसमीपे गत्वा किं करोति इत्याह- साधुसाक्षिकं पुनः सामायिकंकृत्वा दर्याप्रतिकम्यागमनमालोचयेत् । तत आचार्यादीन् वंदित्वा स्वाध्यायं काले. चावश्यकं करोति ” इत्यादि " इस पाठ में गुरुपास जाकर करे मिभंतेका उच्चारण किये बाद पी छेसे इरियावही करके आचार्यादिकोंको वंदना करके स्वाध्याय करना बतलाया है और पीछे अवसर आवे तब छ आवश्यक रूप प्रतिक्रमण करनेकाभी बतलाया है । ३- श्रीहीर विजयसूरिजी के संतानीय श्रीमानविजयोपाध्याय जीकृत धर्मसंग्रह वृत्तिका पाठभी देखो: For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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