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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काहलत्व २९१ किमिति काहलत्व (वि०) उच्चारण की स्पष्टता रहित, अव्यक्त वचन वाला। काहली (स्त्री०) तरुणी, यौवना। किं (सर्व०) कः (पुं०) कि (नपुं०) क्या। का (स्त्री०) (अव्य०) (किं०) किं पश्यस्यपि (जयो० १२/ १२८) (सुद० ३/४२) तत्त्वतः कः किं कस्य सिद्धिरनेकान्तस्य। (सुद० ९१) कः (प्रथमा) कः परलोक (सुद० ११) किं का तृतीया में-केन, काभ्याम् कैः। केनोद्धत: स्तम्भ इवायि देव। (सुद० २/१४) यस्या न केनापि रहस्य भावः। (सुद० २/२०) कं-द्वितीया एक वचनकं लोक (जयो० १/११०) करोत्यनूढा स्पयको तु कं न। (सुद० २/२१) कस्य-(६/१) सुद० ३/४७। कस्मैः (४/१) सुद० १२५ । किं कर्त्तव्य-विमूढः (पुं०) अवाक। (सुद० ७९) किंकरता (वि०) कर्त्तव्यशीलता. सेवकपना। (वीरो० ९/२८) (जयो० २०/७४) किंकिरारातः (पुं०) [किंकर+अत्+अण] कीर, तोता, शुक। १. कोमल, २. कामदेव, ३. अशोक तरु। किं करणी (वि०) कर्मकारिणी, कर्मचारिणी। (जयो० ११/९९) किङ्करः (पुं०) भृत्य, नौकर। (जयो० ७/६३) किङ्करी (स्त्री०) अनुचरी। (जयो० वृ० १०/११) किङ्किरिणी (स्त्री०) दासी, अनुचरी। (सुद० ७५) किंपाकः (पुं०) किंपाकफल। (जयो० २७/८४) किंवत् (वि०) निर्धन, तुच्छ, नगण्य। किं शारू: (पुं०) धान्य बाल का अग्रभाव। किंशुकः (पुं०) ढाक तरु, टेसू वृक्ष। किंशुकं (नपुं०) टेसू का पुष्प, पलाश पुष्प। (समु० ६/६) पलाशिता किंशुक एव यत्र द्विरेफवर्गे मधुपत्वमत्र। (सुद० १/३३) प्रियाल-मुनिर्वाचयमे बुद्धे प्रियाला गस्त्यकिंशुके' इति वि० (जयो० २१) किंशुलकः (पुं०) ढाकतरु। किङ्कणी (स्त्री०) [किंचित् कणति-कण इन्+ङीप्] घुघरु. आभूषण में लगने वाला क्वणित शब्दात्मक घुघरू। किणिका देखो ऊपर। किङ्किणीका (स्त्री०) धुंघरु। (वीरो० २/३५) किञ्च (अव्य०) कुछ, थोड़ा। (जयो० १/२३) किसी (समु० २/३०) किञ्चित् ( अव्य०) ०कुछ, ०थोड़ा सा, अल्प, ०बहुत कम। (सुद० १०३) भक्ति०२। 'किञ्चिच्छुभोदर्कवशात्तथेतः' (सुद० ४/१८) | किञ्चित् कालः (पु) कुछ समय, अल्पकाल। किञ्चित्कालमतिक्रम्य द्विगुणत्वमथाञ्चति। (सुद० १२६) किञ्चिदपरमपि (अव्य०) कुछ अन्य नहीं। (दयो० ९४) किञ्चिदपि (अव्य० ) ०कुछ भी, ०अल्प भी. ०थोड़ा सा भी। (दयो०) किञ्चिद-वृत्तं (नपुं०) कुछ गोलाकार। (सुद० १२२) किञ्जलः (पुं०) एक लघु पादप. पानी में खिलने वाला कमलाकार छोटा पुष्प। किञ्च (अव्य०) कुछ भी। (जयो० वृ० १/२) किटिः (स्त्री०) [किट इन्+किञ्च] सूकर, सुअर। किटिभः (पुं०) जू, लीख, खटमल। किट्टम् (नपुं०) कीट, मेल मला (जयो० २८८१) किट्टप्रतिपातिः (वि.) कीट विमुक्त। (वीरो० १७/७) किणः (पुं०) १. अन्न, धान्य कण। २. यश, गुण-नृपतेस्तु मुदे नदी किण-स्थिरतेवाग्रिमवर्षपत्रिणः' (जयो०१३/५४) ३. चिन्तन करना-समनुभवंत स्वात्मनः किणम्' (सुद० १२२) 'किणं गुणं विकीर्णधान्यञ्च धरति' स्वीकरोति' (जयो० वृ० ७/९०) किण-धारिन् (वि०) गुणधारी (जयो० वृ० ७/९०) किण-धारिणः किल पुनीत-पक्षिण:।' (जयो० ७/९०) किण्वं (नपुं०) [कण+क्वन्] पाप कित् (सक०) १. चाहना, इच्छा करना। २. चिकित्सा करना। कितवः (पुं०) धूर्त, झूठा, कपटी, छली। (जयो० १६/७०) २. धतूरा पादप। किन्तु (अव्य०) जो कि, परन्तु, तथापि (समु० ३/११, जयो० १/१५) किन्धिन् (पुं०) [किं कुत्सिता धीर्बुद्धिरस्य किं धी+इनि] अश्व, घोटक। किन्तु किं (अव्य०) किन्तु क्या (जयो० ४/४०) किंतया (अव्य०) उसमें भी क्या। (सुद० ९८) किमस्मदीय (वि०) क्या हमारे जैसे। (वीरो० ८/२९) 'किमस्मदीय-बाहुभ्यां प्रियाया गलमालभे।' किमिति (अव्य०) क्या। गम्यतां किमिति सम्प्रति। (जयो० ४/५) For Private and Personal Use Only
SR No.020129
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages438
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size14 MB
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