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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ-कथि ३ अकान्त अ-कथि (वि०) कष्टवर्जित, दु:खरहित। (जयो० ३/६) अकनिष्ठ (वि०) [न अकनिष्ठ:] बड़ा, श्रेष्ठ, उत्तम, ज्येष्ठ। अकन्या (वि०) [न कन्या अकन्या] जो कुमारी न हो, पत्नी। अ-कर (वि०) [न करः अकर:] कर मुक्त, निष्क्रिय, अकर्मण्य, अपाहिज। अकनाशिनी (वि०) दु:खहारिणी, पाप विनाशिनी। हृदयमाशु ददावकनाशिनी। (जयो० ९/७८) अकप्रद (वि०) दु:खदायी (सम्य १५४/१०१) अकरणम् (न०) [कृभावे ल्युट] अक्रिया, कार्य का अभाव। अकरिणः [स्त्री०) [न+कृ+अनि] असफलता, निराशा, अप्राप्ति। अकरणीय (वि०)[नास्ति करणं योग्यः] नहीं करने योग्य। (दयो० पृ० ३३) अकर्ण (वि०) [न कर्ण:] कर्ण रहित, श्रवणशून्य, बहरा। कर्ण रहित सर्प भी होता है। [कलङ्करहितोऽस्ति] कलङ्करहित, निष्कलङ्क, श्रेष्ठ, उत्तम। नोट:-अकर्तन् से अकलङ्क (वि.) [कलङ्क रहितोऽस्ति] कलङ्क रहित, निष्कलङ्क, ०श्रेष्ठ, उत्तम ०शुद्ध, विशुद्ध। विभिद्य देहात्परमात्मतत्त्वं, प्राप्नोति सद्योऽस्तकलङ्कसत्वम्। (सुद० १३३) जो अन्तरात्मा बनकर देह से भिन्न, निष्कलङ्क-सत्, चिद् और आनन्द रूप परमात्मा का ध्यान करना है, वह स्वयं शुद्ध बनकर परमात्म तत्त्व को प्राप्त होता है। अकलङ्कर्थमभिष्टुवन्ती कुमुदानां समूह चैधयन्ती किलास्ति। लङ्कानां व्यभिचारिणीनामार्थो लङ्कार्थः, अकोऽघकरश्चासौ लङ्कार्थश्च तम्। (वीरो० १/२५) अकलङ्कः (पुं०) आचार्य अकलङ्कदेव। अकलङ्कस्य यशसः प्रतिष्ठानाय यन्मति। (जयो० २२/८४) अष्टसहस्री नामटीका किलाकलङ्कस्य नामाचार्यस्य यशसः प्रतिष्ठानाय भवति। जिसका ज्ञान अकलङ्क नामक आचार्य के अष्टशती नाम ग्रन्थ की प्रतिष्ठा/स्पष्टीकरण के लिए आवश्यक है। किलाकलङ्को यशसीति वा यः। (जयो० ९/९०) यश में कलङ्क रहित, अकलङ्क हैं।आचार्य अकलङ्क का यश न्यायशास्त्र में प्रसिद्ध है। अतुलकौतुकवती वा या वृततिरकलङ्कसदधीतिः। (सुद० पृ० ८२), अत्यन्तमननपूर्वक आत्मसात् करके अतुल कौतुक वाली महावृत्ति अकलङ्क की है। अकलङ्ककृति: (स्त्री०) अकलङ्क रचना, आचार्य अकलङ्क द्वारा रचित अष्टशती और अष्ट सहस्री टीका जैन न्याय के विषय से सम्बंधित कृतियाँ हैं। विशिष्ट रचना। अकलङ्ककृति: शाला, विधानन्दविवर्णिता। (जयो० ३/७७) यह कलङ्क रहित/निर्दोष रचना अष्टशती आचार्य अकलङ्क द्वारा रची गई, आचार्य विद्यानन्द द्वारा न्याय की श्रेष्ठतम् कृति अष्टसहस्री मानी गई, जिस पर आचार्य अकलङ्क द्वारा विवर्णिका प्रस्तुत की गई। अकलङ्का कलङ्कवर्जिता कृतिर्विनिर्मितिर्यस्याः सा। यस्माद्विद्याया आनन्देन विवर्णिता। अनेन अष्टसाहस्रीनामन्यायपद्धतिश्च समस्यते। (जयो० वृ० ३/७७) निर्दोष/ कलङ्करहित चमत्कार जन्य महावृत्ति राजवार्तिक की रचना आचार्य अकलङ्क ने की है। अकलदेवः (पुं०) आचार्य अकलङ्क अष्टशती न्यायग्रन्थ के कर्ता, राजवार्तिक महावृत्ति के प्रणेता और अष्टसहस्री विवर्णिकार आचार्य अकलङ्कदेव हैं। अकलङ्कारलङ्कारः (पुं०) अष्टशती वृत्ति (वीरो० . ४/३९) अकल्क (वि०) नियन्त्रित, योग्य, निष्पाप, शुद्ध। अकल्प (वि०) [न कल्प:] कल्प रहित, विचार रहित, अयोग्य, दुर्बल, अतुलनीय। अकल्प्य (वि०) अग्राह्य। अकषाय (वि०) कषाय रहित, क्षमत्वशील। यस्मिन् नास्ति कषायः अकषायत्व (वि०) विगतकषायता। अकषायवेदनीय (नपु०)ईषत् कषाय रूप से वेदन जहां होता है। अकस्मात् (अव्य०) अचानक, सहसा, एकाएक। अकस्मानिया (स्त्री०) दूसरे किसी को लक्ष्य करके बाण आदि के छोड़ने पर जो उससे उसका घात न होकर अन्य ही किसी व्यक्ति का घात हो जाता है। सहसाक्रिया। अकाण्ड (वि०) [समयो रहित:] अवसराभाव, असमय, विकाल। अकाण्ड एवाथ शिखण्डिमण्डल:। (जयो० २४/२२) अकाण्ड एवावसराभावेऽपि। (जयो० २५/२२) मयूरों का समूह आनन्द से पुलकित होता हुआ असमय में ही कोमल नृत्य करता है। अकाण्ड (वि०) आकस्मिक, अप्रत्याशित, सहसा, अचानक। अकाण्डजात (वि०) असमय में उत्पन्न, सहसा उत्पन्न, आकस्मिक उत्पादक। अकाण्डपात (वि०) आकस्मिक घटना। अकान्त (वि०) अकस्य दुःखस्यान्तकरीमकान्तां, किञ्चाकान्ता शोभनीयाम्। (जयो० पृ० ११/५६) दुःख को मिटाने For Private and Personal Use Only
SR No.020129
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages438
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size14 MB
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