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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६२ ) दशमतृतीये नवपञ्चमे चतुर्थाष्टमे कलत्र च । पश्यन्ति पादवृद्धया फलानि चैवं प्रयच्छन्ति ॥ पूर्ण पश्यतिरविजस्तृतीयदशमेत्रिकोणमपि जीवः । चतुरस्र भूमिसुतः सितार्कबुधहिमकराः कलत्रञ्च ॥६२॥ अर्थात् (समस्त ग्रह अपने स्थान से) तृतीय और दशम, नवम और पञ्चम; चतुर्थ और अष्टम तथा सप्तम स्थान को चरणवृद्धि से देखते हैं और इसी प्रकार फल भी देते हैं। (किन्तु) शनि तृतीय और दशम स्थान को, गुरु पञ्चम और नवमस्थान को, मंगल चतुर्थ और अष्टम स्थान को तथा शुक्र, सूर्य, बुध और चन्द्रमा सप्तम स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। भाष्य : प्रथम श्लोक में ग्रहों की पाद दृष्टि का वर्णन किया गया है और द्वितीय में पूर्ण दृष्टि का । वस्तुतः यह वराहमिहिर का मत है । सब ग्रह अपने स्थान से तृतीय और दशम स्थान को एक पाद दृष्टि से, नवम और पंचम स्थान को द्विपाद दृष्टि से, चतुर्थ और अष्टम स्थान को त्रिपाद दृष्टि से तथा सप्तमस्थान को पूर्णदृष्टि से देखते हैं । इस तरह प्रथम, द्वितीय, षष्ठ, एकादश एवं द्वादश इन पाँच स्थानों को छोड़कर शेष सात स्थानों पर ग्रहों की किसी न किसी प्रकार की दृष्टि पड़ ही जाती है। किन्तु यह मत सर्वसम्मत नहीं है। विशेषकर प्रश्नशास्त्र के आचार्यों ने पूर्ण दृष्टि को ही माना है। उनका बहुमत पाददृष्टि को स्वीकार करने के विरुद्ध है। सभी ग्रह अपने स्थान से सप्तम स्थान को देखते हैं। किन्तु शनि सप्तम स्थान के अतिरिक्त तृतीय और दशम को, गुरु पञ्चम और नवम को तथा मंगल चतुर्थ और अष्टम स्थान को भी देखता है। प्रश्नशास्त्र के आचार्यों ने दृष्टि के सम्बन्ध में For Private and Personal Use Only
SR No.020128
Book TitleBhuvan Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmaprabhusuri, Shukdev Chaturvedi
PublisherRanjan Publications
Publication Year1976
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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