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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५७ ) देने में समर्थ नहीं होता।' ग्रहों की नीच राशि, शत्रु ग्रह और पाप ग्रह की चर्चा पहले श्लोक १३-१७ और श्लोक ४२ में की जा चुकी है। प्रसंगवश अस्तंगत, पराजित, हीन रश्मि और बलहीन ग्रह का संक्षिप्त विवेचन पाठकों की सुविधा के लिए दिया जा रहा है। सूर्य के समीप आने से जब ग्रहों का प्रकाश मन्द पड़ जाता है, तो उन्हें अस्त कहते हैं। जब चन्द्रमा आदि ग्रहों का सूर्य से अन्तर यथाक्रमेण १२°, १७°, १४०, १२०, ११०, १००, ८° और १५० अंश हो तो वे अस्त हो जाते हैं। ग्रहों की अत्यन्त निकटता को ग्रहयुद्ध कहते हैं। यह दो या अधिक ग्रहों में सम्भव है। इस ग्रहयुद्ध में उत्तर की ओर रहने वाला एवं जाज्वल्यमान रश्मि वाला ग्रह विजयी तथा अन्य पराजित माने जाते हैं। हीनरश्मि से तात्पर्य मन्दकिरणों वाले ग्रह हैं। गणितीय रीति से रश्मि साधन का प्रकार केशव आदि आचार्यों ने बतलाया है।' जातक ग्रन्थों में ग्रहों के बलाबल का विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। सामान्यतया ग्रहों के ५ प्रकार के बल बतलाये गये हैं १. स्थानबल, २. दिग्बल, ३. कालबल, ४. चेष्टाबल और ५. नैसर्गिक बल। स्थानबल : जो ग्रह अपनी उच्चराशि, मूलत्रिकोण, स्वराशि, १. नीचस्थिता अस्तमिताश्च पापा युक्ता स्तथा शत्रुजिता विरुक्षाः । बलेन हीनास्त्वणवश्च न स्युः स्वकर्म कतु खचरा: समर्थाः ।। जातक पारि० अ० ७ श्लो०१८ २. देखिये--सूर्य सिद्धान्त उदयास्ताधिकार ३. तत्रव-ग्रह युत्यधिकार ४. देखिये--केशवीय जातक पद्धति For Private and Personal Use Only
SR No.020128
Book TitleBhuvan Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmaprabhusuri, Shukdev Chaturvedi
PublisherRanjan Publications
Publication Year1976
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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