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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ५१ ) नीची भूमि, शस्त्रका घाव, कुश्ती, द्वन्द्व युद्ध, अपशकुन, पिशु-नता, नम्रता, श्वसुर और सास का भी विचार इस भाव से किया जाता है । " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वापीकूपतडागादि प्रपादेवग हाणि च । दीक्षा यात्रा मठं धर्मं धर्मान्निश्चित्य कीर्तयेत् ॥ ५१ ॥ अर्थात बावड़ी, कुआँ, तालाब, जलपात दीक्षा, तीर्थयात्रा, धर्ममठ और धर्म स्थान का निश्चय नवम भाव से करें । भाष्य : यह भाव धर्म भाव कहा गया है । अत: जनकल्याण के लिए बनाये गये, कुआँ बावड़ी, तालाब, घाट एवं प्याऊ आदि के साथ धर्म दीक्षा, तीर्थ यात्रा, धार्मिक मन्दिर, मठ, धर्मशाला और धार्मिक न्यासों का विचार इस भाव से होता है । यह भाग्य स्थान भी कहा जाता है । अतः भाग्योदय, राज्यभिषेक, यश सम्मान एवं आकस्मिक लाभ का विचार भी इस भाव से करते हैं । गुरु, देव एवं दैवीकृपा प्राप्ति का प्रतिनिधित्व भी यह भाव करता है । राज्यं मुद्रां पुरं पण्यं स्थानं पितृ प्रयोजनम् । वृष्टयादि व्योमवृत्तान्तं व्योम स्थाना द्विलोकयेत् ॥५२॥ अर्थात् राज्य, मुद्रा, नगर, व्यापार, सामाजिक स्थान, पितृकर्म, वर्षा एवं आकाश आदि दशम स्थान से देखें । १. मृत्यो चिरन्तनं द्रव्यं मृतवित्तं रणो रिपुः । दुर्गस्थानं मृतिर्नष्टं परिवारो मनो व्यथा ।। २. धर्मे रतिस्तथा पन्था धर्मोपायं विचिन्तयेत् । For Private and Personal Use Only तत्रैव श्लो० ५३ तत्रैव श्लो० ५४
SR No.020128
Book TitleBhuvan Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmaprabhusuri, Shukdev Chaturvedi
PublisherRanjan Publications
Publication Year1976
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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