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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषयों का निरूपण किया गया है । क्रान्तिवृत्त या राशिचक्र का जो प्रदेश पूर्वक्षितिज से संलग्न रहता है, वह लग्न कहलाता है। इसी प्रकार पश्चिम क्षितिज से संलग्न क्रान्ति वृत्त के प्रदेश को अस्तलग्न या सप्तम भाव कहते हैं। ऊर्ध्वयाम्योत्तरवृत्त से संलग्न क्रान्तिवृत्त का प्रदेश दशमलग्न तथा अधोयाम्योत्तरवृत्त से लगा हुआ भाग चतुर्थ भाव कहा जाता है । एक अहोरात्र या २४ घन्टों में द्वादश राशियाँ क्रमशः पूर्वक्षितिज में उदित होकर लग्न या तनुभाव के रूप में हमारे सामने आती है। मध्यम मान से एक लग्न का भोग मान लगभग २ घन्टा होता है । प्रश्न कुण्डली का निर्माण करने से पहले इष्टकाल का साधन कर या साम्पतिक काल का आनयन कर फिर स्पष्ट लग्न का साधन कर लेना चाहिये। ज्योतिष शास्त्र के सभी प्रसिद्ध ग्रन्थों में लग्नानयन की सूक्ष्म गणितीय प्रक्रिया का सोपपत्तिक विवेचन किया गया है । साथ ही तन्वादि द्वादश भावों के स्पष्टीकरण की रीति भी बतलायी है । किन्तु सम्प्रति सारणी द्वारा लग्नानयन एवं भाव स्पष्ट की रीति अधिक प्रचलित तथा लोकप्रिय है। अतः इष्टकाल एवं स्पष्ट सूर्य के माध्यम से स्वदेशीय अक्षांश और पलभा पर बनी लग्नसारिणी द्वारा लग्नानयन कर लेना चाहिए अथवा साम्पतिक काल का साधन कर 'राफेल' की लग्नसारिणी द्वारा स्वदेशीय अक्षांश पर स्पष्ट लग्न का ज्ञान कर तन्वादि द्वादश भावों का स्पष्टीकरण करना चाहिये । क्योंकि सूक्ष्म एवं स्पष्ट लग्न और अन्य भावों के ज्ञान के बिना यथार्थ फलादेश नहीं किया जा सकता। तन्वादि द्वादश भावों के फल का निश्चय करने से पूर्व For Private and Personal Use Only
SR No.020128
Book TitleBhuvan Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmaprabhusuri, Shukdev Chaturvedi
PublisherRanjan Publications
Publication Year1976
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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