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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ***** भव्यजनकण्ठाभरणम् वने मृतोऽन्धोऽपि चरञ्जवेन खोऽपि पश्यन्नपि साक्षिपादः ।। श्रद्धानहीनश्च ततः समस्तैरेवेष्टसिद्धी रुचिबोधवृत्तैः ॥ २१९ ॥ अर्थ- बनमें एक अन्धा दौड़ता हुआभी जंगलकी आगमें जलकर मर गया और आंख तथा पैरवाला किन्तु श्रद्धानहीन एक लंगड़ा देखते हुएभी जंगलकी आगमें जलकर मर गया अतः सम्यग्द र्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंकी पूर्णतासेही इष्टकी सिद्धि होती है ॥ २१९ ॥ सज्ञानमत्र क्षतभाविकर्म सद्वृत्तमस्तार्जितकृत्स्नकर्म । सम्यक्त्वमेतद्द्वयपुष्टिहेतुरिति त्रयं स्यात्सफलं तदेव ॥ २२० ॥ - अर्थ- सम्यग्ज्ञान नवीन कौके बन्धको रोकता है । सम्यक्चारित्र पहलेके बंधे हुए समस्त कर्मोंको नष्ट कर देता है । और सम्यग्दर्शन इन दोनोंको बलवान् बनाता है । इसलिये ये तीनोंही सार्थक हैं ॥ २२० ॥ सम्यश्चि हग्धीचरितान्यमूनि रत्नानि तद्यत्परिणामजातौ । जीवस्य चोत्कृष्टतराणि जन्मक्लेशापनोदाच्च शिवप्रदानात् ।। २२१ ____ अर्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों रत्न जीवके परिणामोंमें अत्यन्त उत्कृष्ट है क्यों कि ये जीवके जन्ममरणके कष्टको दूर करते हैं और उसे मोक्षप्रदान करते हैं ॥२२१॥ रत्नत्रयात्मा सुचिराय धर्मः सार्थन नाम्ना भहितः स जीयात् । धरत्यतुल्ये शिवधाम्नि मग्नानुद्धृत्य सत्त्वान्भववारिधेर्यः ।। २२२ अर्थ- रत्नत्रयसे युक्त आत्माही स्थायी धर्म है और वही 'धर्म' इस सार्थक नामसे शोभित है, क्योंकि वह संसाररूपी समुद्रमें डूबे १ ल, चरन्दवेन २ ल. मत्राहितभाविकर्म ३ ल. तदेतत् ४ ल. येत् For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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