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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यंजन कण्ठाभरणम् **** ***** 3 अर्थ - निर्दोष सम्यग्दृष्टी जीव संयमका पालन न करने पर भी मिथ्यात्वभावों से बंधनेवाले नपुंसक वेद और नरकायुको तथा अनन्तानुबन्धी कषायसे बंधनेवाले स्त्रीवेद, नीचगोत्र और तिर्यञ्चायुको नहीं बांधा। क्योंकि इन कमोंके बन्धमें निमित्त मिथ्यात्वभाव और कषाय है वह उसके नहीं होती । अतः सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नपुंसक नहीं होता, नारकी नहीं होता, नीचगोत्र में जन्म नहीं लेता और न तिर्यञ्च पर्याय में जन्म लेता है ॥ २०२ ॥ ये श्वभ्रतिर्यङ् मनुजामरायुबन्धादुपर्याप्त सुदृष्यस्ते । स्वल्पीकृतायुः स्थितिभोगभूमितिर्यग्नकल्पानिमिषा भवन्ति ।। २०३ अर्थ - किन्तु जो जीव नरकायुका बन्ध कर चुकनेके पश्चात् सम्यक्त्व ग्रहण करता है वह नरकमें तो अवश्य जाता है किन्तु उसकी नरककी आयु बहुत थोड़ी हो जाती है, जैसे राजा श्रेणिककी सातवें नरकक आयु घटकर पहले नरककी स्वल्प आयु रह गई थी। जो जीव तिर्यञ्चा या मनुष्यका बन्ध कर चुकनेके पश्चात् सम्यक्त्व ग्रहण करता है वह मरकर उत्तम भोगभूमिका तिर्यञ्च अथवा मनुष्य होता है । और जो देवायुका बन्ध कर चुकनेके पश्चात् सम्यक्त्व ग्रहण करता है वह मरकर कल्पवासी देव होता है ॥ ३०३ ॥ सम्यक्त्व सम्राजमुदारमेनं संज्ज्ञानमन्त्रीद्धचरित्र सैन्यम् । संसेव्य सन्तः शमिताद्यदौस्थ्याश्वर्वन्त्यलभ्येषु पदेषु शर्म ॥ २०४ अर्थ- सम्यग्ज्ञानरूपी मंत्री और सम्यक् चारित्ररूपी सेनासे सम्पन्न इस महान् सम्यग्दर्शनरूपी साम्राज्यका सेवन करके, मिथ्यात्व और अनुन्तानुवधीं कषायका उपशम करनेवाले सज्जन पुरुष न प्राप्त होने योग्य पदों को प्राप्त करके सुखका उपभोग करते हैं ॥ २०४ ॥ १ ल. श्रद्धान For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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