SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलुषित था। आशाधरकी उक्तिरूपी निर्मलीके प्रभावसे जब वह निर्मल हुआ तो ऋषभदेवकी भक्तिसे प्रसन्न हुई शरदऋतुके द्वारा उसमेंसे चम्पूरूप कमल विकसित हुआ। ___ उक्त दोनोंही पद्योंसे इतनाही स्पष्ट होता है कि आशाधरकी सूक्तियों से उनकी दृष्टि अथवा मानस निर्मल हो गया था। ... मुनिसुव्रत काव्यके उक्त अन्तिम पद्यसे पूर्व एक पद्य और भी उसमें हैधावन् कापथसंभृते भवयने सन्मार्गमेकं परम् त्यक्त्वा श्रान्ततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम् । सद्धर्मामृतमुद्धृतं जिनवचाक्षीरोदधेरादरात् पायं पायमितश्रमः सुखपदं दासो भवाम्यहंतः ॥ ६४ ॥ अर्थात- कुमाोंसे भरे हुए संसाररूपी वनमें जो एक उत्तम सन्मार्ग था उसे छोडकर बहुत काल तक भटकता हुआ मैं अत्यन्त थक गया । तब किसी प्रकार काललब्धिवश उसे पाया । उसे पाकर जिनवचनरूपी क्षीरसमुद्रसे उद्धृत किये हुए और सुखके स्थान सर्माचीन धर्मामृतको आदरपूर्वक पी पीकर थकान रहित होता हुआ मैं अर्हन्त भगवान का दास होता हूं। - इस पद्यमें आया हुआ धर्मामृत पद अवश्यही आशाधरके धर्मामृत नामक ग्रन्थका जिसके सागारधर्मामृत और अनगारधर्मामृत दो भाग हैं-सूचक है। अतः उक्त पद्योंके द्वारा अहहासके सम्बन्धमें केवल इतनाही पता चलता है कि पहले वह कुमार्गमें पड़े हुए थे। आशाधरके धर्मामतने और उनकी उक्तियों ने उन्हें सुमार्म में लगाया। सम्भव है कि जैन धर्मानुयायी न होकर अन्यधर्मानुयायी हों। और इसीसे For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy