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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणT *****************★★★★★★★★★★७ अर्थ-- यश, लाभ वगैरहकी अपेक्षा न करके तथा पूजा और स्वदेश आदिके पक्षकी भी उपेक्षा करके धर्मप्रेमवश हे वत्स, तुम जिनभक्त श्रावकोंमें और यतियोंमें प्रेम करो ॥ १९५ ॥ प्रभावना अंगका स्वरूप--- जिनोक्तविद्यादिषु यत्र शक्तिः स्वस्यास्ति तत्साधुतया प्रयोज्या । लोकेष्वपाकृत्य तदनभावं प्रभावना तन्महिमप्रकाशः ॥ १९६ ॥ ___ अर्थ-- जिन भगवान के द्वारा कही हुई विद्या, तप, दान, जिनपूजा, वगैरहमेसे जिसमें अपनी शक्ति हो उस शक्तिका अच्छी रीतिसे प्रयोग करके और जनतामें फैले हुए अज्ञानभावको दूर करके उसकी महिमा प्रकट करना प्रभावना अंग है ।। १९६ ॥ । सम्यक्त्वमङ्गः सकलैः समग्रैः शुद्धैरमीभिः सुखसाधनैस्तैः । संयुक्तमेवातनुते स्वकृत्यं राज्यं शरीरं च यथा जगत्याम् ।। १९७ ॥ अर्थ- जैसे लोकमें अपने अंगोंसे पूर्ण राज्यही शासन-कार्यमें सफल होता है, और सर्वाङ्गपूर्ण शरीरही अपना कार्य करनेमें सफलता प्राप्त करता है वैसेही सुखके साधन इन सम्पूर्ण निर्दोष अंगोंसे सहित सम्यक्त्वही अपना कार्य करता है ॥ १९७ ॥ ____ आठों अङ्गोंमें प्रसिद्ध हुए व्यक्तियोंके नामलोकेऽञ्जनोऽनन्तमतिः प्रसिद्धिमुद्दायनोऽनङ्गेष्विव रेवती च | जिनेन्द्रभक्तोऽथ सुवारिषणो विष्णुश्च वज्रश्च गताः क्रमेण ।। १९८॥ अर्थ-- प्रथम निःशंकित अंगका पालन करनेमें अंजनचोर, दूसरे निःकांक्षित अंगका पालन करनेमें अनन्तमती, तीसरे निर्विचिकित्सा अंगको पालने में उद्दायन राजा, चौथे अमूढदृष्टि अंगको १ ल. प्रसिद्धी २ ल. रु ३ ल. ऽष्टसु For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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