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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६*************************** भव्यजनकण्ठाभरणम् ___ अर्थ- झूट बोलने में कारण समस्त राग, द्वेष, मोह वगरहको जीत लेनेसे जो 'जिन' कहे जाते हैं, उन्हीके वचन समस्त अन्य वचनोंको पराजित कर देते हैं, जैसे वज्र समस्त पर्वतोंको चूर चूर कर देता है ॥ १५९ ।। अदोषिणस्तस्य वचोऽप्यदोषि स्याहोषिणोऽन्यस्य वचोऽपि दोषि । शुद्धेन्दुकान्तस्य जलं च शुद्धं दुष्टाजिनस्येव जलं च दुष्टम् ॥१६०॥ अर्थ- जिनेन्द्रदेव निर्दोष होते हैं, इसलिये उनका वचनभी निर्दोष होता है। अन्य देवता सदोष हैं इससे उनका वचनभी सदोष है । ठीकही है, शुद्ध चन्द्रकान्त मणिसे झरनेवाला जल शुद्ध होता है और अशुद्ध चमडेका मशकका जल अशुद्ध होता है॥१६०॥ तस्याङ्गिनां मातुरिचौरसानां सपत्निकानामिव वाक्परेषाम् । सुधेव पाके कटुवत्तदात्वे क्रमेण हालाहलवत्सुधावत् ।। १६१ ॥ ____ अर्थ- प्राणियोंके लिये उस निर्दोष बाप्तका वचन वैसाही होता है. जैसा अपने पेटसे जन्म लेनेवाले पुत्रों के लिये माताका वचन । जो उस समय तो कडुआ लगता है किन्तु बादको अमृतके तुल्य लाभदायक प्रतीत होता है। तथा अन्य लोगोंका वचन सापत्नमाताओं के तुल्य होता है, जो उस समय तो अमृतकी तरह मीठा लगता है किन्तु वादको हलाहल विषकी तरह प्राण ले लेता है ॥१६१ वाण्येव जैनी मणिदीपिकेव निरस्य दुर्वादिवचस्तमांसि । व्यनक्ति लोकत्रितये यथावत्स्यात्कारमुद्राङ्कितवस्तुजातम् ॥१६२॥ · अर्थ- अतः जिनवाणीही यथार्थ वाणी है, जो रत्नमयी दीपिकाकी तरह दुर्वादियोंके वचनरूपी अन्धकारको दूर करके तीनो For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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