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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् kakkkkkkkk*************५१ वैसेही संसारके दुःखोंसे डरे हुए प्राणियोंको सांसारिक दुःखोंके शत्रु उन जिनेद्रदेवकी भक्तिपूर्वक आराधना करनी चाहिये ॥ १४५ ॥ श्रित्वादिमं तापमतेष्वबुद्धानाश्रित्य मूलाच भजत्स्वमुक्त्वा । छायाद्रवत्तस्य न रेटपरागस्तथापि ते दुःखसुखास्पदानि ॥ १४६॥ __ अर्थ-- ये लोग मेरे आश्रयमें आये हैं ऐसा न जानता हुआभी छायावृक्ष सूर्यतापसे पीडित हुए मनुष्यका ताप हटाता है। तथा जो लोग उसकी छायामें नहीं जाते हैं उनके संतापको नहीं हटाता है। लोकसंताप दूर करने में अथवा न करनेमें छायावृक्षको न रोष है और न तोष है वैसे जिनेश्वरको किसीके ऊपर न रोष है न राग है, तथापि लोग दुःख और सुखके स्थान होते हैं । अर्थात् जो जिनेश्वरकी भक्ति करते हैं वे सुखी होते हैं और जो उनमें द्वेषभाव रखते हैं वे दुःखी होते हैं ॥ १४६॥ तस्मिन्निदानीमिव सार्वभौमे देशे वसत्यप्यतिविप्रकृष्टे । चरन्ति एते सुखिनस्तदीयामाज्ञामनुल्लद्ध्य परे सदुःखाः ।। १४७॥ अर्थ- आजकलके समस्त पृथिवीके स्वामी चक्रवर्तीकी तरह उन जिनेन्द्रदेवके सुविस्तृत और सुदीर्घ क्षेत्रमें रहते हुए, जो उनकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करते वे सुखपूर्वक विचरण करते हैं और जो ऐसा नहीं करते वे दुःख उठाते हैं ॥ १४७ ॥ जना गृहप्रामपुरीजनान्तषट् खण्डमात्रं प्रभुशासनं चेत् । उल्लङ्घयन्तोऽप्युरुदुःखभाजस्तत्किं पुनः सर्वजगत्प्रभोस्तत् ॥१४८॥ अर्थ-- जिस स्वामीका शासन घरतक, या ग्रामतक, या नगरतक, या देशतक अथवा षट् खण्डपर्यंत है,यदि उसकी आज्ञाका उल्लं १ ल. तापक्तेिष्वबुद्ध्वा. २ ल.. टच राग For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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