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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् *************************४९ देवद्रुमो वा जिन एव दत्ते दानस्य बुद्धथारहितोऽपि सम्यक् ।। स्वकीयपादाश्रयतुष्टिभाजे समस्तसत्त्वाय सदेप्सितानि ॥ १३९ ॥ अर्थ- कल्पवृक्षकी तरह दान देनेकी भावनासे रहित होनेपरभी जिनेंद्रदेवही अपने चरणोंका आश्रय पाकर सन्तुष्ट हुए समस्त प्राणियोंको सदा इच्छित वस्तुओंको देते हैं ॥ १३९ ॥ संसारकक्षे बहुदुःखदावे गोवर्मवत्भ्रान्तिदकोटिमार्गे ।। चक्रम्यमाणाखिलसत्त्वमेकं ततो नयेन्मुक्तिपथं स एव ।। १४० अर्थ- इस संसाररूपी वनमें दुःखरूपी भयानक आग लगी हुई है, और गायोंके जाने के रास्तेकी तरह इसमें भ्रममें डालनेवाले करोडो मार्ग हैं। उसमें भटकनेवाले समस्त प्राणियोंको एक जिनेंद्रदेवही मुक्तिके मार्गपर ले जानेमें समर्थ है ॥ १४०॥ आस्थायिकानावमतुल्यमानस्तम्भोरुदण्डामधिरोह्य सत्त्वान् । स एव संसारमहाम्बुराशेः सौख्यास्पदं धाम नयत्यभीष्टम् ॥१४१॥ अर्थ-जिसमें अनुपम मानस्तंभरूपी विशाल मस्तूल खड़ा है, उस समवसरणरूपी नावपर चढाकर जिनेन्द्रही प्राणियोंको संसाररूपी समुद्रसे पार उतारकर इच्छित सुखकर स्थानको ले जाते हैं ॥१४१॥ मिथ्यात्वधर्मप्रभवादतत्त्वमरीचिकानुद्रवखेदभारात् । निवर्तयत्यङ्गिमृगानिवाब्दः स एव तत्त्वामृतवर्षणेन ॥१४२॥ ___ अर्थ- जैसे मेघ जलकी वृष्टि करके जल समझकर मरीचिका. की ओर दौड़नेवाले हरिणोंको व्यर्थक कष्टसे बचाता है वैसेही जिनेंद्रदेव तत्त्वरूपी अमृतकी वर्षा करके मिथ्यात्वके प्रभावसे अतत्त्वों की ओर दौड़नेवाले प्राणियोंको उस व्यर्थके क्लेशसे बचाते हैं, अर्थात् ' उनका उपदेश सुनकर प्राणी मिथ्याधर्मकी ओर नहीं जाते ॥१४२॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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