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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir **** भव्यजनकण्ठाभरणम् शरीरकी सुगन्धि कस्तूरीकी गन्धकोभी मात करती है। और तीनों लोकोंकोभी बदलनेमें अत्यन्त प्रवीण ऐसी कुछ अपूर्व शक्ति उनमें है, तथा निमेषसे दूर उनके नेत्रयुगल खिले हुए नीलकमलको लजाते हैं ॥ १२५-२८ ॥ संसारदुःखातपतप्यमानसमस्तसत्त्वच्छलसस्यपुष्टेः । । निदानमच्छात्मयथार्थवादितीर्थामृतस्यन्दनमद्वितीयम् ।। १२९ ॥ ___ अर्थ- जिनेन्द्र निर्मल आत्मावाले, यथार्थवादी, तीर्थरूपी अमृतके अपूर्व प्रवाह हैं, जो संसारके दुःखरूपी आतपसे सन्तप्त समस्त प्राणियोंके व्याजसे धान्यकी पुष्टिमें कारण है ॥ १२९ ।। संसारितासूचकरागरोषमोहादिदोषप्रकटस्य सत्त्वे । सर्वत्र सत्ता पिशुनाम्बुजाक्षीशस्त्राक्षमालाधरणाद्यभावः ॥ १३०॥ ___अर्थ- समस्त प्राणियोंमें संसारीपने के सूचक राग, क्रोध, मोह आदि दोषोंके समूहकी सत्ता पाई जाती है। किन्तु जिनेन्द्रदेवमें ये दोष नहीं है । इसीलिये न तो उनके पास किसी दुर्जनका आवास है, न स्त्री है, न वे शस्त्र रखते हैं, और न रुद्राक्षकी माला वगैरहही पहिनते हैं ।। १३० ॥ करैरिनस्येव समीरणेन ध्यानेन सर्वावरणेऽवधूते । स्वयं प्रमाणैरपि सूक्ष्मदूराद्यालियाथात्म्यनिवेदकत्वम् ॥ १३१ ।। ___ अर्थ-. जैसे हवाके द्वारा सूर्यके ऊपरसे मेघपटलका आवरण दूर हो जाने पर उसकी किरणोंसे सूक्ष्म और दूरवर्ती पदार्थोंको ठीक ठीक दिखलाती हैं, वैसे ही ध्यानके द्वारा ज्ञानावरण आदि कर्मों के १ ल. ध्यातेन सर्वावरणेऽवधूते । vvvvvv... For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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