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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४२ ★★★ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ★★ भव्यजनकण्ठाभरणम् आप्तोऽर्थतः स्यादमरागमाद्यैरच्छाङ्गताद्यैरपि भूष्यमाणः । तीर्थङ्करच्छिन्न समस्तदोषावृति सूक्ष्मादिपदार्थदर्शी ॥ ११७ ॥ अर्थ- जो तीर्थङ्कर- धर्म तीर्थका प्रवर्तक है, जिसने समस्त दोषोंको और आवरणोंको नष्ट कर दिया है, जो सूक्ष्म परमाणु वगैरह पदार्थोंको जानता देखता है, जिसके समवसरण ( उपदेशसभा ) में देवता आते हैं और जो परम औदारिक शरीर आदि बाह्य विभूतियोंसेभी भूषित है वही वास्तव में सच्चा आप्त है ॥ ११७ ॥ देवी समीक्ष्य गत्वा मायाविनं तत्र न चाप्रभावम् । दृष्ट्वेत्थमन्यत्र विलोक्य तानि नासाविहापीति बुधैर्न वाच्यम् ॥ अर्थ- किसी मायावी - इन्द्रजालियेके पास जाकर और वहां देवोंका आगमन वगैरह देखकर यदि कोई यह कहे कि जैन तीर्थकरके पास जो देवोंका आगमन वगैरह देखा जाता है वह भी जादूगरीकी करामत है, वास्तविक नहीं है, तो समझदारोंको ऐसा नहीं कहना चाहिये ॥ ११८ ॥ अब तीर्थङ्कर शब्दका अर्थ बतलाते हैं निरीक्ष्य गोपालघटोत्थधूमं श्रित्वानलं तत्र समीक्ष्य नेत्थम् । अभ्रंलिहं धूममनष्टमूलं दृष्ट्वात्र चासौ न यथा च वाच्यम् ॥ ११९ अर्थ - जैसे जादूगर के घडेमेंसे बिना आगके ही निकलते हुए धुंएको देखकर और उसके बाद कहीं जमीन से उठकर आकाशतक छूनेवाले धारावाही धूमको देखकर समझदार मनुष्य यह नहीं कहता कि यह धुआंभी जादूगर के घड़ेसे उत्पन्न होनेवाले धूमकी १ ल. दृष्टेत्थ For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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