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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० *************************** भव्यजनकण्ठाभरणम स्वप्नेऽपि रुच्याः सुधियां न वेदा द्विजोत्करस्यात्तपलाशनादेः। जाताः सहायाः स्वयमेव नृत्यत्पिशाचजातेः पटहा इवाप्ताः ॥७९॥ ____ अर्थ- बुद्धिमान मनुष्योंको वेद स्वप्नमें भी रुचिकर नहीं होते । जैसे स्वयंही नृत्य करते हुए पिशाचोंके नाचनेमें नगारे सहायक हो जाते हैं वैसेही मांस आदिका सेवन करनेवाले ब्राह्मणों के लिये वे वेद सहायक हुए ॥ ७९ ॥ वेदत्रयैस्तैर्विहितापि हिंसा धर्माय नैवाततशर्मणे स्यात् । अस्यां परस्यानी यत्समैव हिंसाभिसन्धिः खलु यातना च ॥८०॥ . अर्थ- वेदोंके द्वारा हितहिंसा भी न तो धर्मका कारण है और न विस्तृत-विशाल सुख..। कारण है। क्यों कि वेदविहित हिंसा हो या अन्य हिंसा हो दोनोंमेंही हिंसाकी भावना और यातना ( कष्ट ) समानही होती है ।। ८० ॥ . सदाप्यहिंसाजनितोऽस्ति धर्मः स जातु हिंसाजनितः कुतःस्यात् । न जायते तोयजकञ्जमग्नेर्न चामृतोत्थं विषतोऽमरत्वम् ।। ८१ ॥ ___. अर्थ- धर्म सदा अहिंसासेही होता है, कभी भी वह हिंसासे कैसे हो सकता है ? क्यों कि पानीमें पैदा होनेवाला कमल आगसे पैदा नहीं हो सकता और न अमृतपानसे होनेवाला अमरत्व विषपानसे होता है ॥ ८१॥ पश्चापि सन्नैकह्रषीकजीवाः पञ्चेन्द्रियैकाङ्गिवधाघदानाः । नमो जिनायेत्युदितार्थदः स्यान्नः पञ्चवारोच्चरितोऽपि नाद्यः ।। ८२ - अर्थ- पांचोंभी प्रकारके एकेन्द्रिय जीवोंको मारनेसे उतना पाप नहीं होता जितना पाप एक पञ्चेन्द्रिय प्राणीको मारनेसे होता १ ल. वेदक्रमैः For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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