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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम ************************** २१ अर्थ-- जिसने देश, काल वगैरहको अपने अनुकूल करके अपने शत्रु हिरण्यकशिपुका वध किया और उसका उदर फाड़कर उसके आंतोंकी मालाओंसे अपना विशाल वक्षःस्थल भूषित किया वह नृसिंह भगवान्भी सज्जनोंके द्वारा सेवनीय नहीं हो सकता। भावार्थ- प्रह्लाद विष्णुभक्त था और उसका पिता हिरण्यकशिपु विष्णुका द्वेषी था । अन्तमें विष्णुने नृसिंह अवतार धारण करके हिरण्यकशिपुका उदर फाड़ डाला और उसकी आंते निकालकर अपने गलेमें पहनीं ॥ ५२ ॥ लोकोन्नतोऽप्यर्थितया बबन्ध यो वामनीभूय बलिं निजेष्टम् । अनाप्य सत्यापयति स्म सि (भि) क्षायायेत्य चौष्ठं दशतीति वाचम् ।। अर्थ- जगतमें श्रेष्ठ होते हुए भी विष्णुने अर्थी बनकर और वामनावतार लेकर बलि नामक दैत्यराजाको वचनबद्ध किया । और अपनी इष्ट वस्तुके प्राप्त न होनेपर अपने ओष्ठको डसते हुए क्रोधको प्रकट कर अपने वचनको पूरा कराया। भावार्थ- पुराणोंमें वामनावतारका कथन आता है। दैत्योंका राजा बलि यज्ञोंका अनुष्ठान करके बलवान् होना चाहता था। इससे देवलोग बडे घबराये | तब विष्णु भगवान् वामन अवतार धारण करके बलिके यज्ञमें सम्मिलित हुए । बलिने प्रसन्न होकर उन्हें इच्छित वस्तु मांगनेको कहा और वामन-रूपधारी विष्णुने तीन पैड़ जमीन मांगकर उसका संकल्प करा लिया । किन्तु विष्णुने दो पैडमें ही समस्त भूमि नाप ली, तीसरे पैरके लिये स्थान नहीं रहा । तब बलिने क्षमाप्रार्थना वगैरह करके विष्णुको सन्तुष्ट किया ॥ ५३ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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