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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ★ ★ भव्यंजनकण्ठाभरणभू १२ हैं यह अति आश्चर्यकी बात है । भावार्थ - लड़ाई में गणेशजी बहुत घायल होगये थे । उनके पिता शिवने उनका मस्तक तक काट डाला था । पीछे पार्वतीके कुछ होने पर हाथीका मस्तक जोड़कर गणेशको शिवजीने जीवित किया था । रावणने उसका एक दांत तोड दिया था अतः उसे एक-. दन्त कहते हैं ॥ २९ ॥ उवाह रागोदयतः पुलिन्दीमुतावधीत्तारकमुप्ररोषात् । स मोहलीलासदनावतारः षाण्मातुरः किन्नु सतामुपास्यः ॥ ३० ॥ अर्थ - जिसने राग के वशीभूत होकर भीलनी के साथ विवाह किया और अत्यंत क्रुद्ध होकर तारक राक्षसका वध किया, मोहकी क्रीडाभवन के अवतार रूप वह कार्तिकेय सज्जनोंके उपास्य [ आराध्य ) कैसे हो सकता है । भावार्थ - यह कार्तिकेय शिवके पुत्र थे । शिवपुराण में इसकी उत्पत्तिकीं बड़ी विचित्र कथा दी हुई है । उसका संक्षेप इसप्रकार - मुहमें धारण किया हुआ वीर्य अग्निदेवको असह्य होने से उसने गंगानदीमें गमन किया । उस समय छह कृत्तिकायें जलक्रीडा कर रही थी। उनके पेटमें उस वीर्यने प्रवेश किया तब उसके असा दाहसे वे तटपर आकर लोटने लगी, उसी समय उनसे कार्तिकेयका जन्म हुआ। छह कृत्तिका माताओंसे उसका जन्म होनेसे उसे षाण्मातुर कहते हैं । ॥ ३० ॥ मान्यः स किंवा भुवि वीरभद्रो मखे स्वमातामहमस्तकस्य । छेत्ता शुचिः पाणियुगस्य मित्रद्न्तानशेषानुदपाटयद्यः ॥ ३१ ॥ अर्थ - जिसने यज्ञमें अपने नानाका मस्तक और अग्निदेव के १ ल. मुखस्य मातामहमस्तकस्य । २ ल. शुचेः For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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