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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् ** अपनी अपनी मर्यादामें ही सीमित है, उसके बाहर नहीं । अतः प्रत्येक वस्तु अपनी मर्यादा में है, उसके बाहर नहीं । यदि वस्तुएँ इस मर्यादा का उल्लंघन कर जाये तो फिर सभी वस्तुएँ सब रूप हो जायेंगी और इसतरह बड़ी गड़बड़ फैल जायेगी । अतः प्रत्येक वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा सत् और पररूपकी अपेक्षा असत् है ॥ ११ ॥ किं चैप नास्तीत्यखिलेऽपि देशे काले च बुद्ध्यैव यदि त्वमात्थ । अयं त्वमेवाखिलविन्न बुद्ध्वास्यवित्त्वमस्त्येव समस्तवित् सः ॥ १२ अर्थ अतः कोई पुरुष आप्त अवश्य है । शायद आप कहें कि किसी भी देशमें और किसीभी कालमें कोई पुरुष आप्त नहीं हुआ, न है, और न होगा। तो आप यदि सब देशों और सब कालोंको जानकर ऐसा कहते हैं तो आपही सर्वज्ञ आप्त ठहरते हैं । और यदि बिना जानेही कहते हैं तो आपका कथन प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। अतः सबको जाननेवाला कोई आप्तपुरुष अवश्य है ॥ १२ तदाप्तरत्नं सकलार्थसिद्धेर्निदानभूतं नितरां दुरापम् । लोके तदाभाससहस्रपूर्ण सम्यक् परीक्ष्यैव भजन्तु सन्तः || १३|| अर्थ - वह आप्तरूपी रत्न समस्त अर्थोंकी सिद्धिका मूलकारण है किन्तु उसकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है । क्यों कि यह संसार हजारों बनावटी आप्तोंसे भरा पड़ा है । अतः सज्जन पुरुष आप्तकी परीक्षा करकेही उसको अपनावें ॥ १३ ॥ रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः सर्वज्ञताद्युद्धगुणास्तु सन्ति । आप्तः स एवास्त्यपरे न सर्वेऽप्यमी समा यध्रुवमस्मदाद्यैः ॥ १४ अर्थ – जिसको रागादि दोष नहीं है और सर्वज्ञता आदि श्रेष्ठ गुण पाये जाते हैं वही आप्त है, बाकी सब आप्त नहीं हैं। ये तो For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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