SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वक्तव्य किसी प्रकार की संचित निधि का नाम कोष है । मनुष्य के लिये रत्नादि जिस प्रकार निधि कहे जाते हैं उसी प्रकार मनोगत भावों के व्यक्त करने तथा चिरकाल तक उन्हें रक्षित रखने वाले शब्द भी उसके लिये निधि का कार्य करते हैं । रत्नादि सम्बन्धी निधि के बिना किसी प्रकार मनुष्य अपना जीवन चला भी सकता है किन्तु शब्द-सम्बन्धी निधि के बिना उसका जीवन अल्पकाल भी नहीं चल सकता । इस निधि का उपयोग उसके लिये प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थान पर अनिवार्य हो होता है । इस निधि का रखना भी इसीलिये उसके लिये अत्यंत प्रावश्यक है । शब्द निधि अन्य प्रकार की निधियों की अपेक्षा अत्यधिक व्यापक और सर्वसाधारण है। ऐसा होते हुए भी यह किसी देश समाज या व्यक्तिविशेष की भी होकर रहती है । यह समस्त समाज और एक व्यक्ति विशेष दोनों से सम्बन्ध रखती है । इसी शब्द निधि से मनोगत विचारों को व्यक्त करने तथा चिरकाल तक भावी संतति के लिये उन्हें रक्षित रखने वाली भाषा की उत्पत्ति होती है । इसीलिये इस निधि को भी रत्नादि सम्बन्धी, संचित निधि के समान कोश की संज्ञा दी गई है । शब्दों की उत्पत्ति कब, कहाँ और कैसे हुई ? यह प्रश्न बड़ा ही कष्टसाध्य (यदि साध्य नहीं ) और गूढ़-गहन या जटिल है । अद्यावधि इसका कोई सर्वांग शुद्ध तथा प्रमाण-पुष्ट उपयुक्त उत्तर नहीं निश्चित किया जा सका । fra fra fearनों के इस सम्बन्ध में भिन्न भिन्न मत या विचार हैं, और यह विषय भी वैसा ही विचारणीय, गवेषणीय तथा विवाद अस्त है, जैसा यह कभी था । यह अवश्यमेव प्रत्यक्ष-पुष्ट तथा अनुमानानुमोदित होकर सही है कि शब्द- निधि का संचय क्रमशः तथा शनैः शनैः प्रतीतकाल से होता आया है । शब्दों का विकास - प्रकाश धीरे धीरे किन्तु लगातार होता रहा है और अब भी होता जा रहा है। प्रति दिन नये नये शब्द बनाते आये हैं और बनते भी जा रहे हैं । इसी प्रकार शब्दों के आकार-प्रकारादि में भी क्रमशः धीरे धीरे रूपान्तर या परिवर्तन होता आ रहा है । यह भी सही है कि विकास के साथ ही और उसके समान ही शब्द -हास या शब्द- विनाश भी होता जा रहा है। यदि अनेक नये शब्द प्रचलित हो गये हैं और होते जाते हैं, तो साथ ही अनेक पुराने शब्द प्रचलित होकर विस्मृति के गहन गर्त में विलीन भी होते जाते हैं। अनेक शब्दों के प्रयोग उठते जा रहे हैं, और वे इस प्रकार प्रयोग से परे होकर दुवैध हो गये हैं, बिना arr के अवगत नहीं होते, वे केवल कुछ बची-बचाई हुई प्राचीन पुस्तकों तथा प्राचीन कोशों में ही दबे पड़े हैं, और खोजने पर ही प्राप्त होते हैं । जिन प्राचीन शब्दों का संचय कोशों में किसी कारण वश न हो सका था, जो उन में यथोचित स्थान न प्राप्त कर सके थे, वे अब प्रबोध होते हुए सदा के लिये प्रयोग वाह्य होकर लुप्त होते जा रहे हैं। बहुत से ऐसे ही शब्द सर्वथा For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy