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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काऊ ४३७ काकु तितर-बितर होना, छुट जाना । काई काकवन्ध्या--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) सकृत्प्रलगना-मैला हो जाना । -"सरीर लस्यो सूता, स्त्री जिसके एक ही बार संतान होकर तजि नीर ज्यों काई " -- कवि० । मल, रह जाये, फिर दूसरी न हो। मैल, एक प्रकार का लोहे-ताँबे का मुर्चा। काकबलि-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) श्राद्धकाऊ ( काह)-कि० वि० दे० (सं० समय कौवों को दिये जाने वाले भोजन कदा ) कभी । सर्व० (सं० कः ) कोई. का भाग, कागौर ( दे० ) कोऊ (व.) कुछ । . . . . "सपनेहु लखेउ | काकभुशंडि' ( काकभुसंड )--संज्ञा, पु० न काऊ"--विन। (सं० ) लोमश ऋषि के शाप से कौवा काक-संज्ञा, पु. (सं० ) कौआ, काग हो जाने वाले एक ब्राह्मण-मुनि जो राम(व.) संज्ञा, पु. ( अं० कार्क) एक प्रकार भक्त और रामायण-वक्ता थे। की नर्म लकड़ी जिसकी डाट शीशियों में | काकरी--संज्ञा, स्त्री० (दे० ) ककड़ी, लगाई जाती है। यो०-काकगोलक- कंकड़ी। संज्ञा, पु० (सं० ) कौवे की अाँख की काकरेजा--संज्ञा, पु. (हि. काक-रंजन ) पुतली जो एक ही दोनों आँखों में घूमती एक प्रकार का रंगीन कपड़ा। संज्ञा, स्त्री० है । काक-जंधा-- संज्ञा, स्त्री. (सं.) काकरेजो (फा० ) लाल और काला गुंजा, धुंधची, मुगवन ( मुगौन ) लता | मिला रंग, कोकची, वि. काकरेजी रंग का । चकसेनी । काकटम्ब पुष्पी --- संज्ञा, स्त्री० काकलो-- संज्ञा, स्त्री. (सं० ) मधुर ध्वनि, (सं०) महमुंडी औषधि । काकतालीय-- कल नाद, सेंध लगाने की सबरी, साठी वि० (सं० ) संयोगवश होने वाला, इत्त- धान, गुंजा, कौवे की स्त्री। फ़ाकिया, संज्ञा, पु० (सं० ) काकताली- काका-संज्ञा, पु० दे० (फा० काका-बड़ा यन्याय । काकड़ासिंगी-संज्ञा, स्त्री० दे० भाई ) बाप का भाई, चाचा, काकोली, (सं० कर्कट-गी) काकड़ा नामक पेड़ | धुंघची, मकोय, कौवा । स्त्री० काकीमें लगी एक प्रकार की लाह जो दवा के चाची, कौवे की माँदा। काम में आती है। काकतिक्त-संज्ञा, | काकाकौया (काकातूा)-संज्ञा, पु. स्त्री० (सं० काकजंघा ) एक औषधि। (दे० ) एक पक्षी। काकदंत - संज्ञा, पु० (सं० ) असम्भव बात, | काकाक्षि-गोलक-न्याय-संज्ञा, पु. यौ० बात, अद्भुत घटना। (सं० ) एक शब्द या वाक्य को उलट-फेर काक-पक्ष ( काकपच्छ-संज्ञा, पु. यौ० | कर दो भिन्न भिन्न अर्थों में लगाना । (सं०) बालों के पट्टे जो दोनों ओर काकिणी ( काकिनी)—संज्ञा, स्त्री० सं० कानों और कनपटियों के ऊपर रहते हैं, जुल्फ, (दे० ) घुघची, गुंजा, पाँच गंडे कौड़ियों कुल्ला-कौवे के पर । “काक, पच्छ सिर सोहत | के पण का चतुर्थ भाग, ! माशा, कौड़ी, नीके ।” रामा० । छदाम। काक-पद ( काक-पाद )-संज्ञा, पु० यौ० काकु-संज्ञा, पु० (सं०) छिपी हुई चुटीली (सं० ) छूटे हुए शब्द या वर्ण का स्थान, बात, व्यङ्ग, ताना, वक्रोक्ति अलंकार के सूचित करने के लिये लगाया जाने वाला दो भेदों में से एक, जिसमें शब्दों की ध्वनि चिन्ह । ही से दूसरा अभिप्राय लिया जाता है। काकपदी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक प्रकार यौ० काकृक्ति ( सं० ) व्यङ्ग कथन, की औषधि । कातरोक्ति। For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
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