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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्षयतृतीया प्रखंडनीय अक्षयतृतीया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अतिगत-संज्ञा पु० (सं०) आँख पर चढ़ा बैसाख शुक्ल तृतीया। हुआ, देखा हुश्रा, शत्रु। प्राखातीज-अकतीज-(दे० हि.)। अतिगोलक-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) आँख अक्षयनवमी-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० ) की पुतली। कार्तिक शुक्लनवमी। अक्षितारा-संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) आँख प्राखानौमी-(दे०)। की पुतली। अक्षयवट-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) प्रयाग अक्षिपटल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आँख और गया में बरगद के वृक्ष जिनका नाश का परदा। प्रलय में भी नहीं माना जाता-(पौराणिक) अतिषिभ्रम-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) आँख अक्षय्य-वि० (संज्ञा,) अविनाशी। का घुमाना। अक्षर-वि० (सं०) नित्य, नाशरहित । संज्ञा अतिविक्षेप --संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पु. आकाशादितत्व वर्ण,हरफ, प्रात्मा, ब्रह्म, कटाक्षपात । आकाश, धर्म, तपस्या, मोक्ष जल, शिव, अक्षुण्ण-वि० (सं०) बिना टूटा हुआ, अपामार्ग (चिचिरा), सत्य, निर्विकार ।। अक्षरन्यास-अक्षर-विन्यास - संज्ञा, पु. अनाड़ी, समूचा, अविकृत, मनस्तापरहित, अधूर्णित । यौ० (सं० ) लेख, लिपि, लिखावट, मंत्र के प्रक्षोट-संज्ञा पु० (सं० ) अखरोट । एक एक अक्षर का उच्चारण करते हुए आँख, प्रक्षोनी-संज्ञा स्त्री० (दे०) प्रक्षोहिणी । कान, नाक आदि का स्पर्श करना, (तंत्रशास्त्र) अक्षोभ- संज्ञा, पु. (सं०) क्षोभ का अक्षर-माला- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) अभाव, शान्ति । वि०-क्षोभरहित, गंभीर, वर्णमाला अक्षर श्रेणी। शान्त, निडर, निर्भय, मोहरहित, बुरे काम अक्षरौटी--संज्ञा, स्त्री० (हि.) वरतनी, वर्ण से न हिचकने वाला। माला, स्वर का मेल (अखरोटी, अखरावट दे०) अक्षरावर्तन-वे पद्य जो वर्णमाला के | | अक्षौहिणी-संज्ञा स्त्री० (सं.) चतुअक्षरों को यथाक्रम लेकर प्रारम्भ होते हैं। रंगिणी सेना, जिसमें १०९३५० पैदल, अक्षवार-संज्ञा पु० (सं.) जुवा खेलने का | ६५६१० घोड़े, २१८७० रथ, और ११८७० हाथी होते हैं। स्थान, जुवाखाना। अक्षांश-संज्ञा पु० (सं० यौ०-अक्ष-- | अक्स-संज्ञा पु. ( म०) प्रतिबिम्ब, छाया, ग्रंश)-उत्तरी और दक्षिणी ध्रव के अन्तर तसबीर, चित्र । के ३६० समान भागों में से प्रत्येक से होती अक्सर क्रि० वि० ( दे० ) अकसर, बहुधा । हुई ३६० कल्पित रेखायें जो पूर्व-पश्चिम | अखंग-8 वि० (सं० अखंड) न चुकने की ओर जाती हुई मानी गई हैं, वह कोण वाला, अविनाशी। जहाँ पर क्षितिज का तल पृथ्वी के अक्ष | अखंड-वि० (सं० ) जिसके टुकड़े न हों, से कटता है । भूमध्य रेखा और किसी समग्र, सम्पूर्ण लगातार, बे रोक, निर्विघ्न । नियत स्थान के बीच में याम्योत्तर का पूर्ण प्रखंडित-वि० (सं०) अविच्छिन्न, निर्विघ्न, झुकाव या अन्तर, किसी नक्षत्र के क्रान्ति- बाधा-रहित । वृत्त के उत्तर या दक्षिण की ओर का | प्रखंडनीय-वि० (सं०) जो खंडित न कोणान्तर। हो सके, जिसके विरुद्ध न कहा जा सके, अति--संज्ञा स्त्री. (सं० ) आँख, नेत्र। पुष्ट, युक्ति-युक्त । For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
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