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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अकेल अकिल - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अक्ल ( फा० ) | अकुशल-वि० ( सं० ) अमङ्गल, बुरा, जो बुद्धि । चतुर न हो। अकिलदाढ़-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हिं.) अकुशलता-भा० संज्ञा स्त्री० (सं० ) पूर्ण अवस्था पर निकलने वाली डाढ़ या अचतुरता, अमंगलता। अतिरिक्त दाँत। अकुशली-वि० (सं०) कौशलविहीन, अकिल्विष-वि० (सं०) पाप-शून्य, निर्मल। अप्रसन्न । अकूत- वि० दे० (अ+ कूतना) जो कूता न प्रकीक-संज्ञा, पु. ( अ०, फा० ) मुहर जा सके, बे अंदाज़, अपरिमित, "सुनि कै दूत खोदने का लाल पत्थर। अकूत मोद लहि चले तुरत तिरहूता" सूर० प्रकीर्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अयश, अप "नारिनर देखन धाए घर घर सोर अकूत ।" यश, बदनामी *अकीरति (हिं०) अप । सूबे० । कीर्ति । अकूहल*--वि० (दे० ) बहुत, अधिक । प्रकीतिकर-संज्ञा, पु० (सं० ) अपयश अकूपार-संज्ञा, पु० (सं०) सागर, कछुवा, कारी, अयशस्कर। पत्थर, चट्टान । अकुंठ-वि० (सं० ) तीषण, चोखा, पैना, अकृच्छ्र-वि० (सं० ) सरल, आसान । खुला हुआ,-"जीवत बैकुंठ लोक जो अकुंठ | प्रकृत-वि० (सं.) बिना किया हुश्रा, गायो है" - सुन्द०, तीव्र, खरा, उत्तम ।। बिगाड़ा हुआ, जो किसी का रचा न हो, प्रकंठ्य -वि० ( सं० ) जो कुंठित न किया नित्य, स्वयंभू, प्राकृतिक, निकम्मा, बेकाम, जा सके, तीषण । बुरा, मन्दा, कर्महीन- "हौं असौच अकृत प्रकुंठित-वि० (सं० ) जो कुंठित न हो, | __ अपराधी सनमुख होत लजाउँ । “सूबे० । पैना। | अकृति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) बुरी कृति, अकुताना-अ० कि० (हि० दे०) ऊबना, करणी। घबड़ाना, उकताना। अकृतज्ञ-वि० (सं०) कृतघ्न, किये हुए अकुताही-संज्ञा स्त्री० (दे० ) ऊब, घबड़ा उपकार को न माननेवाला, अकृतज्ञताहट, बिना कोताही ( कमी) के । सं० भा० स्त्री० (सं०) कृतघ्नता। अकुतोभय-वि० ( सं० भ+कुतः+भय ) प्रकृतघ्न-वि० (सं० ) कृतज्ञ, जो उपकार जिसे कहीं डर न हो, निडर, निश्शंक, माने, जो कृतन न हो। निर्भय, साहसी। अकृतघ्नता-संज्ञा, भा० स्त्री. ( सं० ) कृतज्ञता। प्रकुल-वि० (सं० अ-+कुल ) जिसके कुल में कोई न हो, नीच कुल का, कुलहीन, अकृत्रिम-वि० (सं०) प्राकृतिक, जो बना वटी न हो। अकुलीन, सं० पु० नीचकुल। अकेतन-वि० (सं० ) घर-द्वार-हीन, गृहअकुलाना-अ. क्रि० (सं० माकुलन )। रहित। उतावला होना, घबराना, व्याकुल होना, | अकेल-अकेत्ता-वि० (एक+ला) तनहा, मन होना, बेचैन होना। बिना साथी का, एकाकी, अद्वितीय । संज्ञा, प्रकुलिनी-वि० स्त्री० (हि० ) व्यभि- | पु. निर्जन, निराला। चारिणी स्त्री। यौ०-अकेतादम–एक ही व्यक्ति । अकुलीन-वि० ( स०) नीच कुल का, अकेलादुकेला---एक या दो, अधिक नहीं। कुजाति, छुद्र, संकर, जारज, कमीना, शूद्र ।। संज्ञा, पु०-एकान्त, निर्जन स्थान । For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
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