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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रारक्त २५८ प्रारबल पीतल, किनारा, कोना जैसे द्वादशार चक्र, श्रारण्यक-वि० ( सं० ) वन का, जंगली । पहिये का थारा. हरताल, कांटा, पैना संज्ञा, पु. (सं० ) वेदों की शाखा का वह अंकुश, मंगल, शनि, ताँबा, लोहार, भाग जिनमें वानप्रस्थों के कृत्यों या कर्तव्यों चमार। । का विवरण और उनके हेत उपयुक्त उपदेश संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अल = डंक ) सांटे हैं। जैसे वृहदारण्यक उपनिषद् । या पैने में लगी हुई लोहे की पतली कील, | प्रार*- वि० दे० (सं० प्रात) पीड़ित, अनी, पैनी, नरमुर्ग के पंजे के ऊपर का दखी. व्याकल. कातर । काँटा बिच्छू, भिड़ (बरं ) या मधुमक्खी “भारत काह न करै कुकर्मा "-रामा० । का डंक। सुनतहि भारत-वचन प्रभु-रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मारा ) चमड़ा भारता-संज्ञा, पु० (दे०) दूल्हे की छेदने का सुश्रा या टेकुवा, सुतारी।। भारती, विवाह की एक रस्म या रीति संज्ञा, पु० दे० (हि. अड़) ज़िद, हठ, विशेष । टेक। प्रारति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) विरक्ति, "अँखियाँ करति हैं अति भार" निवृत्ति, दुख । सूर० । "चंदहिं देखि करी अति प्रारति"--सूर० । संज्ञा, स्त्री० (अ.) तिरस्कार, घृणा, श्रदा "मो समान भारत नहीं प्रारतिहर तोसों" वत, शत्रुता, शर्म, बैर, लज्जा। --विन। "पार औ प्यार तौ रारि रचें चितचाह श्ररी भारती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पारात्रिक ) अनुपारि न पावै"--रसाल । किसी मूर्ति के चारों ओर सामने दीपक प्रारक्त-वि० (सं०) लालिमा लिये हुये, घुमाना, देवता को दीप दिखाना, दीपकुछ लाल, लाल, रक्त वर्ण का। दर्शन, नीराजन, (पोडशोपचार पूजन में ) पारग्वध-संज्ञा, पु० (सं० ) अमिलतास । वह पात्र जिसमें कपूरा या घी की बत्ती रख पारचा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) मूर्ति, प्रतिमा, अर्चा, पूजा। कर भारती की जाती है, भारती के समय पढ़ा जाने वाला स्तवन या स्तोत्र । श्रारज*-वि० दे० (सं० आर्य) श्रेष्ठ, उत्तम, पूज्य । पारन* - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रारण्य ) टूटि गयो धर को सब बंधन छूटिगो आरज जंगल, वन । लाज बड़ाई"-रस०। " कीन्हेंसि सावन आरन रहै "-प० । प्रारजा--संज्ञा, पु० (अ.) रोग, बीमारी, श्रार-पार-संज्ञा, पु. (सं० पार = किनारा व्याधि। +पार = दूसरा किनारा ) यह किनारा और संज्ञा स्त्री० दे० (सं० आर्या ) पूज्या, एक वह किनारा, यह छोर और वह छोर, इधरछंद विशेष। उधर। प्रारजू-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) इच्छा, वांछा, क्रि० वि० (सं०) एक किनारे या छोर से अनुनय, विनय, प्रार्थना, बिनती। दूसरे किनारे या छोर तक, एक तल से " तजि पार जू आरजू मेरी सुनौ"- दूसरे तल तक, जैसे आर-पार जाना, बारसरस। पार छेद होना। भारण्य---वि० (सं० ) जंगली, धन का, आरबल-(आरबला) संज्ञा, पु० दे० वन्य। । (सं० आयुर्बल ) श्रायु, अवस्था, उन । For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
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