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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - विदीर्ण १५८७ विद्याधर विदीर्ण-वि० सं०) बीच से चीड़ा या विदेह-कुमारी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) फाहा हुश्रा, निहत, मार डाला हुअा, विदेह-सता, विदेह-तनया, जानकी जी, विदीरन (दे०)। "फलम्तन-स्थान विदीर्ण सीता जी, विदेह-कन्या, विदेहतनुजा, रागिह द्विशच्छुकास्यस्मर किशुकाशुगाम्” | विदेहात्मजा, विदेह-पुत्री। “केहि पट-नैष । तरिय विह-कुमारी"-- रामा० । विदारन-वि० (दे०) विदागा (स.)। विदेहपुर : विदेहनगर .. संज्ञा, पु० यौ० विदुर-संज्ञा, पु० (सं०) ज्ञाता, ज्ञानी, | (सं.) जनकपुर । " तुरत बिदेहनगर जानकार, पंडित, विद्वान, धृतराष्ट्र के राज- नियराये' -- रामा० । स्त्री० विदेह-पुरी, नीति और धर्म-नीति में अतिकुशल मंत्री। विदेह-नारी। विदुष-संज्ञा, पु० (सं०) पंडित, विद्वान। विदेही-- ज्ञा, पु. (सं० विदेहिन् ) ब्रह्म । " विदुषाम् किमुपेक्षितम् ' -भा० द.। . प. (सं०) पंडित. विदान. विदुपी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) पंडिता, पढ़ी जानकार, बुधग्रह ( ज्यो०)। लिखी स्त्री। विद्ध - वि० (सं०) बीच से बेधा या छेद किया विदर --- वि० सं०) जो अत्यंत दूर हो, बहुत हुधा, फेंका हुश्रा, चुटहिल, छेदा, या सटा दूर वाला । संज्ञा, पु० (दे०) वैदूर्य मणि । हुआ, टेढ़ा । वि० (दे०) वृद्ध (सं.)। विदूषक -- संज्ञा, पु० (सं०) मसख़रा, विद्यमान-वि० (सं०) उपस्थित, मौजूद, दिल्लगीबाज़, मम्परा, नाकाल, भाँड़, हाजिर, प्रस्तुत । " विद्यमान रघु-कुलमणि मंत्री, कामुक, विषयो । 'कहत विदूषक सों जानी"..--रामा। कछू, को यह केशवदाप "---रामा० । विद्यमानता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मौजूदगी नायक का वह अंतरंग मित्र जो अपने हाज़िरी, उपस्थिति। परिहासादि से उसे ( या नायिका को) विद्या--संज्ञा, स्त्री. (सं०) शिक्षादि से प्राप्त प्रसन्न करता तथा काम केलि में सहायक ज्ञान, इल्म, वे शास्त्रादि जिनसे ज्ञान प्राप्त होता है ( नाट्य०)। विदूषना-२० कि० दे० (सं० विदूषण ) हो, जानकारी विद्या के चार और चौदह भेद कहे गये है, ४ वेद और उपवेद (प्रायुः, धनुः, कलंक या दोष ( ऐब ) लगाना, सताना, दुख देना । अ० क्रि० -दुखी होना । " इन्हें गांधर्व, अर्थशास्त्र) षडंग ( वेदांग ) शास्त्र न संत विदूषहि काल"-रामा०।। ( मीमांसा, न्यायादि ६ शास्त्र ) धर्मशास्त्र विदेश-संज्ञा, पु० (सं०) परदेश, दूसरा ( स्मृति ) भूगर्भादि अन्यशास्त्र (विज्ञान) देश, विदेस (दे०)। " पूत बिदेश न सोच काव्य कोचादि (साहित्य) पुराण (उपपुराण) तुम्हारे"-रामा० । श्रार्या छंद का पंचम भेद, दुर्गा, विद्या विदेशी, विदेशीय--वि० (सं.) अन्य देश (दे०) । " विद्या भोगकरी यशः, सुखकरी, सम्बंधी, अन्य देश-वासी, परदेशी, पर- विद्या गुरुणां गुरुः "--भ० श० । देसी, बिदेसी (दे०)। विद्यागुरु--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिक्षक, घिदेह-संज्ञा, पु० (६०) शरीर-रहित, बिना | पढ़ाने वाला, विद्या में बड़ा । देह का, राजा जनक, जिसकी उत्पत्ति माता- विद्यादान - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विद्या पिता से न हो, मिथिला का प्राचीन नाम, पढ़ाना या देना। संज्ञा-शून्य, विदेह (दे०)। " भये विदेह विद्याधर--संज्ञा, पु. (सं०) किन्नर, गंधर्व विदेह विशोकी"-रामा० ! वि० (सं०) बे तथा अन्य खेचरादि की एक देव योनि सुध, बेहोश, अचेत। | विशेष । " विद्याधर यश कहैं गान गंधर्व For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
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