SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय पुरालिपि-शास्त्र स्याही के इस्तेमाल का केवल एक उदाहरण मिला है जो ई. पू. तीसरी या दूसरी शती का होगा ।129 इसलिए इस अवधि में अक्षरों का विकास पूरा-पूरा दृष्टिगोचर नहीं होता। पुरालिपि के क्षेत्र में जो भी गवेषणाएं हुई हैं उनसे यही पता चलता है कि अभिलेखों की लिपि रोजमर्रा के इस्तेमाल में आनेवाली लिपि से अधिकांश में पुरागत होती है क्योंकि अभिलेखों में चिरस्थायी सुगठित रूप रखने की ही इच्छा होती है। इसलिए आधुनिक अक्षरों के इस्तेमाल से बचा जाता है। सिक्कों में तो पुरानी चाल के सिक्कों की नकल की प्रवृत्ति और भी अधिक होती है । इसलिए स्वाभाविक ही इन पर अक्षर भी पुराने ढंग के ही मिलेंगे। अशोक के आदेशलेखों (दे०ऊपर पृ० १३) और बाद के अभिलेखों में भी अक्षरों के घसीटरूपों के साथ-साथ पुराने रूपों का मिलना यह सिद्ध करता है130 कि भारतीय लेखनकला भी उपर्युक्त सामान्य नियम का अपवाद नहीं है । पुस्तक-लेखन और व्यापार आदि के लिए इस्तेमाल में आने वाली अपेक्षाकृत अधिक विकसित लिपि के पुननिर्माण के लिए अनेक घसीट अक्षरों का उपयोग संभव होगा। __ भारतीय लेखन की वास्तविक अवस्था का पूर्ण अभिज्ञान इस वजह से भी नहीं हो पाता, क्योंकि दो अपवादों को छोड़कर शेष सभी अभिलेख या तो प्राकृत में है या एक मिश्र भाषा (गाथा उपभाषा) में और जिन मलप्रतियों को देखकर ये पत्थर या तांबे पर खोदे गये थे, उनके लेखक मामूली क्लर्क या भिक्षु थे, जिनकी कोई शिक्षा-दीक्षा नहीं हुई थी या अगर हुई भी थी तो नगण्य । प्राकृत में लिखने में इन लोगों ने प्रायः हमेशा (मिश्र भाषा में अपेक्षाकृत कम) सुविधाजनक चाल वर्तनी रखी है जिसमें दीर्घ स्वरों के संकेत, विशेषकर ई और ऊ की मात्राओं के अनुस्वार अमहत्त्वपूर्ण समझकर छोड़ दिये गये हैं। चालू वर्तनी में व्यंजन द्वित्व भी प्रायः एक ही व्यंजन से प्रकट किया जाता है, और महाप्राण से पूर्व का अल्पप्राण लुप्त हो जाता है और स्वरहीन अनुनासिकों के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया जाता है131 । प्राकृत अभिलेखों में वर्तनी का यह तरीका ईसा की दूसरी शती तक चला आता है। पालि अभिलेखों में सतत व्यंजन-द्वित्व का प्रथम उदाहरण बनवासी के राजा हारितीपुत्त सातकष्णि के अभिलेख में मिलता है। यह लेख हाल ही में एल. राइस को मिला है।132 इसी राजा के एक अन्य अभिलेख 129. देखि. ऊपर 2, आ (अंत). 130. बु., इ. स्ट. III, 2, 40-43. 131. देखि. ऊपर 7. ___ 132. श्री राइस की एक छाप और फोटोग्राफ के अनुसार। इन्हें भेजने के लिए मैं श्री राइस का आभारी हूँ । 60 For Private and Personal Use Only
SR No.020122
Book TitleBharatiya Puralipi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeorge Buhler, Mangalnath Sinh
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1966
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy