SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खरोष्ठी की उत्पत्ति IV; 11, IV; 17, V; 19, V आदि) शाहबाजगढ़ी में तो बिरले ही, पर मन्सेहरा में उससे अधिक बार अनुस्वार के लिए एक सीधी रेखा मिलती है जैसे थं (21, V) में जो म के भंग के बदले आती है। यदि अक्षर के नीचे पहले से ही कोई दूसरा अनुलग्नक हो तो अनुस्वार खड़ी लकीर में उससे और ऊपर जाकर जुड़ता है। जैसे अं (14, V); डं (18, V), वं (33, V); हं (37, V) में । यं (30, V) और शं में कोणीय अनुस्वार दो भागों में बँट जाता है। पहला अद्धा मात्रिका के दायें किनारे और दूसरा बायें किनारे जुड़ता है । हं और भं (28, IV) में भी ऐसा हो सकता है । इ. संयुक्ताक्षर 1. भ्ये (38, IX), म्म (38, XII), और म्य (38, XII, b) अक्षरों में कोई परिवर्तन नहीं दीखता या है भी तो अत्यल्प । किन्तु दूसरे संयुक्ताक्षरों में प्रायः किसी न किसी अक्षर का अंग-भंग हो जाता है । 2. र का उच्चारण कभी मात्रिका के पूर्व और कभी उसके पश्चात होता है (मन्सेहरा आदेशलेख V, 1, 24 के र्ट को छोड़कर) इसके लिए इसके कुछ टूटे-फूटे रूपों (टि, 38, IV; र्व, 39, I में) के अलावा (अ) एक तिरछी रेखा, जिसमें झुकाव हो भी सकता है और नहीं भी, संयुक्त व्यंजन की खड़ी लकीर के मध्य से उसे काटती हुई जाती है (जैसे ग्र, 38, I; र्ट, 38, II; टि, 38, III में); (आ) संयुक्त चिह्न के नीचे भंग या सीधी लकीर (टि, 38, V; क्र, 6, V; ग्र, 8, V; त्र, 20, V; ध्र, 23, V; 38, VIII; पू, 25, V; अ, 27, V; बं, 33, V, श्रू, 34, V; स्त्रि, 39, VIII. IX) लगती है । म में रेफ हमेशा दायें सिरे पर लगता है, जैसे (29,V) में, क्रू और क्र और भ्र (28. V) में यह बहुधा अक्षरों के हुक के दायें किनारे पर लगता है। कभी-कभी खासकर मन्सेहरा में, सीधी लकीर की जगह ऊपर को खुला भंग भी मिलता है; जैसे थ में (21, IV) । निश्चय ही यह भंग या सीधी लकीर संयुक्त व्यंजनों के पैरों में जुड़ने वाले र का ही प्रतिरूप है । 3. ब (39, II) में दोनों व्यंजन एक-दूसरे में घुस गये हैं। इसमें खड़ी पाई व और र दोनों का काम दे रही है । संयुक्ताक्षर स्त के निर्माण में भी यही सिद्धांत काम कर रहा है । यह संयुक्ताक्षर शाहबाजगढ़ी आदेशलेख I, 1, 2, नेस्तमति में एक बार आया है इसमें स की खड़ी लकीर में त हुक की तरह जुड़ गया है। इसमें स का अंग-भंग भी हो गया है। इसके सिरे का मध्य भाग खुला ही है, पर बायें तरफ का हुक कट गया है। स्ति (39,V) और स्त्रि, (39, IX) 53 For Private and Personal Use Only
SR No.020122
Book TitleBharatiya Puralipi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeorge Buhler, Mangalnath Sinh
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1966
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy