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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्राह्मी की उत्पत्ति दिया गया है इससे स्त० V के a, b वाले रूप तथा बाद में स्त० V के , d वाले आलंकारिक रूप निकले जिनमें कोण दुहराये गये । ___ सं. 21, श, स्त० V=शिन, स्त० I, II (वेबर) । अगल-बगल रखे कोण एक के भीतर दूसरा करके रख दिये गये। फिर चिह्नको सिर के बल उलट दिया गया है। इस प्रकार स्त० V के a, b, c वाले रूप बने । स्त० III में ई. पू. छठी शताब्दी का अरमैक शिन है । यह देखने में इसके अधिक नजदीक मालूम पड़ता है। किन्तु श का यह आदि रूप नहीं हो सकता। इसका भी वही कारण है जो सं. 5 में दिया जा चुका है। अरमैक, फोनेशियन और इथेपियन लोगों ने ऐसे समरूप चिह्न भिन्न-भिन्न समयों में बनाये होंगे । दो कोणो वाला पुराना रूप 100=श के पश्चिमी चिह्न मे सुरक्षित है। (दे० मेरी इं. स्ट० III, 2, 71, 117) । सं. 22. त, स्त० V=ताव, स्त• I, II (वेबर) । सिंजिर्ली, स्त० III, b या सलमानस्सर, स्त० III, a की तरह के किसी रूप से स्त० V के a b रूप निकले । इन्हीं से स्त० V, C वाला नियमित रूप विकसित हुआ। (आ) संजात व्यंजन और आद्य-स्वर हिन्दुओं ने संजात-चिह्नों का स्वय् आविष्कार किया था। ये चिह्न निम्नलिखित उपायों से बनते हैं : ____ 1. ध्वनि की दृष्टि से सजातीय अक्षर के किसी अवयव का स्थानांतरण हो जाता है : (क) स और ष में सबसे पुराने चिह्न के बीच की अर्गला स्थानांतरित हो गई है (दे० ऊपर (अ) में, सं. 15),(ख) द अक्षर ध से निकला है (वेबर)। ध की खड़ी लकीर को दो भागों में बांटकर उन्हें भंग के ऊपरी और निचले सिरों पर जोड़ दिया गया है, इससे पहले द्राविड़ी और पटना की मुहर का द, सं. 4, स्त० VI, b निकला, फिर सं. 4 स्त० VI, f का कोणीय द । 2. ग्रहीत या संजात अक्षर का अंग-भग कर देते हैं ताकि समान ध्वनि मूल्य का अक्षर बना लें : (क) द, सं. 4. स्तं० VI, a के नीचे की लकीर के हटा देने से कालसी और बाद के दक्षिणी अभिलेखों का आधे गोले वाला ड, स्त० VI, C वाला अक्षर बनता है, इसी प्रकार स्त० VI, g के कोणीय द से अशोक के आदेश लेखों का स्त० VI, h वाला सामान्य कोणीय ड बनता है (वेबर); (ख) सं०. 9, स्त० V के थ के केन्द्र बिन्दु के हटा देने से स्त० VI, a काठ बना। इस ठ को दो भागों में काट देने से स्त० VI, b का ट अक्षर बनता है । गोले ठ को एक अल्प प्राण अक्षर और महाप्राणतावक्र का संयोग मानते 27 For Private and Personal Use Only
SR No.020122
Book TitleBharatiya Puralipi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeorge Buhler, Mangalnath Sinh
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1966
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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