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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ भारतीय पुरालिपि-शास्त्र और ळ की ऊ की मात्राओं में (फल. VIII, 41, 46, XVI; मिला. पू, फल. IV, 27, IV)। हलंत ङ (फल. VIII, 15, XVI) का रूप और भी परिवर्तित हो गया है, क्योंकि यह ङ के उत्तरी कोणीय रूप (फल. IV, 11, I तथा आगे) से उसमें दाईं ओर को ऊपर जाती एक लकीर जोड़ कर बना है। म (फल. VIII, 34, XVI) संभवतः तथाकथित गुप्त म (फल. IV, 31, I तथा आगे) से घसीट कर लिखने से बना है। द्राविड़ द्रव वर्गों को भी हम उत्तरी रूपों का विकास मान सकते हैं। ळ (फल. VIII, 43, 44, XVI) का ऊपरी हिस्सा लघु घसीट उत्तरी ल की तरह दीखता है। ड़ को (फल. VIII, 47, 48, XVI) एक लघु तिरछा उत्तरी र और उसके सिर पर एक हुक लगाकर प्रकट कर सकते हैं । ळ (फल. VIII, 45, 46, XVI) संभवतः उत्तरीळ (फल. IV, 40, II) से निकला है। इसमें आड़ी रेखा के किनारे फंदा बनाकर उसे नीचे की लटकन से जोड़ दिया गया है । अमरावती अभिलेख (ज. रा. ए. सो. 1891, पृष्ठ 142 के फलक) के फंदेदार ळ (इसे भ्रमवश ढ़ पढ़ लिया गया) से भी तुलना कीजिए। ___शेष चिह्नों की उत्पत्ति संदेहास्पद है। इनमें कुछ चिह्न, जैसे व (फल. VIII, 38-40,XVI) और आ की मात्रा (देखि. का, फल. VIII, 12,XVI) उत्तरी और दक्षिणी दोनों लिपियों में मिलते हैं। अन्य चिह्न उन चिह्नों के रूपपरिवर्तन हैं जो उत्तरी और दक्षिणी दोनों लिपियों में समान रूप से मिलते हैं। अंतिम हलंत न (फल. VIII, 49, XVI) दो हुकों वाले उत्तरी और दक्षिणी ण का ही रूप परिवर्तन है (फल. III, 20, V, XX; फल. IV, 21, VII तथा आगे; फल. VII, 21, IV, तथा आगे) और इसी से तमिल ण (फल. VIII, 24, XVI) एक और भंग जोड़कर बना। विलक्षण रूप ए (फल. VIII, 8, XVI) या तो फल. IV, 5, X तथा आगे वाले ए से निकला या फल. VII, 5, XXIII वाले रूप से । इसी प्रकार, तु (फल. VIII, 27, XVI) और रु (फल. VIII, 48,XVI) में उ की कोणीय मात्रा दाईं ओर ऊपर उठते उस भंग का विलक्षण रूप-परिवर्तन है जो उत्तरी और दक्षिणी दोनों अक्षरों में मिलता है (दे. शु फल. IV, 36, III, XVII और फल. VII, 36, II, IV) । अंत में, अति घसीट इ (फल. VIII, 3 XVI) उन तीन भंगों के विलक्षण संयोग से बना प्रतीत होता है जो पुराने बिदियों के स्थान पर बने थे। लेकिन इस प्रकार के इ का पता अभी तक नहीं चल पाया है। 152 For Private and Personal Use Only
SR No.020122
Book TitleBharatiya Puralipi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeorge Buhler, Mangalnath Sinh
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1966
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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