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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दक्षिणी लिपियां १२७ इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण सामान्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं : 1. घ, प, फ, ष और स के प्राचीन रूपों का इस्तेमाल जारी रखना जिनमें सिरे खुले रहते हैं । म का पुराना रूप भी सुरक्षित है। इसी प्रकार पुराना त्रिपक्षीय य भी चालू है । यदाकदा, खासकर ग्रंथ लिपि में य फंदेदार हो जाता है। 2. ल के दायें की लंबी लकीर सुरक्षित है किन्तु जो प्रायः बाईं ओर को झुकी रहती है। 3. गोली पीठ वाला ड। 4. अ, आ, क, ञ और र तथा संयुक्ताक्षरों में नीचे लिखे र की लंबी खड़ी रेखाओं के आखीर में भंगों का मिलना जिनके सिरे शुरू में खुले रहते हैं । उ और ऊ की मात्राओं में भी ऐसे भंग मिलते हैं । 5. ऋ की मात्रा जिसमें बाईं ओर मरोड़दार भंग होता है। यदा-कदा अपवाद भी मिलते हैं जैसे कृ में । ___ अन्य विशिष्टताओं को ध्यान में रखकर दक्षिणी लिपियों के निम्नलिखित विभेद288 किये जा सकते हैं : 1. पश्चिमी विभेद--इस पर उत्तरी लिपियों का जबर्दस्त प्रभाव है। है। सन् 430 से 900 ई. तक काठियावाड़, गुजरात, मराठा जिलों के पश्चिमी भाग, जैसे नासिक, खानदेश, सतारा के जिलों में, खानदेश से सटे हैदराबाद (अजंता) के हिस्से और कोंकण में इसका प्रभुत्व था। पाँचवीं शती में राजस्थान और मध्यभारत में भी इसके यदा-कदा प्रयोग के प्रमाण हैं। किंतु 9वीं शती में नागरी के प्रभाव के कारण इसका पूर्णतः लोप हो गया। (देखि. ऊपर 21)। (पूर्व पृष्ठ से) स्तं. XI: इं. ऐ. XVIII, 144 के फलक से । स्तं. XII: ए. ई. III, 18 के फलक से । स्तं. XIII: हुल्श सा. ई. ई. II, फलक 13 से । स्तं. XIV: ए. ई. III, 76 के फलक से। स्तं. XV: ए. इ. III, 14 के फलक से । स्तं.XVI: हुल्श. सा. ई. ई. II, फल. 12 से । स्तं. XVII: XVIII: वही, फल. 4 से । स्तं. XIX, XX: ए. ई. III, 72, फलक के निचले भाग से। स्तं. XXI, XXII: ए. ई. III, 72, फलक के ऊपरी भाग से । 288. मिला. ब., ए. सा. इं. पै. 14. 127 For Private and Personal Use Only
SR No.020122
Book TitleBharatiya Puralipi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeorge Buhler, Mangalnath Sinh
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1966
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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